देश का अन्नदाता गंभीर संकट में है. लगातार वर्ष दर वर्ष पड़ते सूखे ने किसानों की कमर तोड़ दी है. आज भी ११ राज्यों के ३०२ जिलों में किसान बुरी तरह प्रभावित है. और जहाँ सूखा नहीं पड़ा है वहां अत्यधिक बरसात और ओला वृष्टि की मार ने किसानों को भुखमरी की कगार पर ठेल दिया है. उस पर अगर कुछ पैदा भी होता है तो उसका लाभ बिचौलिये ले जाते हैं. बढ़ती लागत, मौसम की मार, घटती आमदनी और बढ़ती महंगाई ने हमारे अन्नदाता की जिंदगी दुरूह कर दी है.
प्रधानमंत्री मोदी ने किसानों की इस दशा की सुध ली है. ‘ग्राम उदय से भारत उदय’ अभियान सरकार की नेक नियति को दर्शाता है. ‘अन्नदाता सुखी भवः’ के मन्त्र के साथ कई महत्वपूर्ण कार्यक्रमों को प्रारंभ किया गया है जिनमें प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना, फसल-बीमा योजना, मुफ्त मृदा स्वास्थ्य- कार्ड, ई-मंडी आदि शामिल हैं. पर सबसे अधिक महत्वपूर्ण है प्रधानमंत्री की यह घोषणा की २०२२ तक किसानों की आय को दुगना कर दिया जायेगा. अगर सच में ऐसा हो जाये तो गरीबी उन्मूलन की दिशा में यह बड़ा कदम होगा. पर प्रश्न यह है कि क्या यह संभव होगा ? क्या आय का औसत आंकड़ा बढ़ने मात्र से किसान की क्रय-शक्ति बढ़ जायेगी ? क्या उसकी बढ़ी हुयी आय मुद्रा-स्फीति को परास्त कर पायेगी ? क्या बढ़ती आय के मानक सरकारी होंगे या किसान के हाथ कुछ लगेगा भी ?
इन उत्तरों को जानने से पहले आईये समझे की किसान गरीब क्यों है. देश की सकल आय में कृषि, वानिकी और मछली-पालन का योगदान कुल १७.५ प्रतिशत है वहीँ कुल रोज़गार का ४९ % इस क्षेत्र से सृजित होता है. इसका सीधा सा अर्थ है कि बहुत ज्यादा लोग बहुत कम कमा रहे हैं. इसी की परिणति हमें कम प्रति व्यक्ति आय और गरीबी में दिखाई दे रही है.
इस आय को २०२२ तक दुगना करने के लिए आने वाले ६ वर्षों में कृषि वृद्धि दर को १२% से ऊपर रखना होगा. अभी यह आंकड़ा केवल मध्यप्रदेश पार कर पाया है. सूखे की मार से जूझते हुए अन्य प्रदेश कैसे इस वृद्धि दर को पा पाएंगे, यह बड़ा प्रश्न है.
एक आम धारणा है कि यदि फसलों का ‘न्यूनतम समर्थन मूल्य’ बढ़ा दिया जाए तो किसानों की आय बढ़ जाएगी. पर नीति आयोग की एक रिपोर्ट के अनुसार ऐसा हो नहीं रहा है. इसकी मूल वज़ह इस योजना की खामियों को बताया गया है. कई फसलों में उत्पादन लागत न्यूनतम समर्थन मूल्य से ज्यादा हो जाती है तो कभी बाज़ार भाव ऊपर चला जाता है. वहीँ दूसरी ओर एनएसएसओ - राष्ट्रीय सैम्पल सर्वे संगठन के अनुसार देश के आधे से ज्यादा किसानों को सरकार द्वारा निर्धारित ‘न्यूनतम समर्थन मूल्य’ व्यवस्था की जानकारी ही नहीं है. और जिनको है उनके आसपास सरकारी विक्रय-केंद्र नहीं है जिस वज़ह से वे बिचौलियों के हाथ अपने उत्पाद औने-पौने दाम पर बेचनें को मजबूर हैं.
एक ऐसा ही वाक़या इस लेखक के संज्ञान में आया जब दिल्ली से मात्र १५० किलो मीटर दूर अलीगढ जिले में लेखक ने खुले आम बिचौलियों को गरीब किसानों से लहसुन केवल ४ रुपये प्रति किलो में खरीदते देखा – वही लहसुन जो हम १५०-३०० रूपये किलो के भाव से खरीदते हैं. जरा सोचिये उस किसान के बारे में जिसकी डेढ़ बीघा ज़मीन में सिर्फ ३ क्विंटल लहसुन की पैदावार हुयी और महीनों की मेहनत के बाद उसे मिले मात्र १२०० रुपये और बिचौलिए ने कमाए ५०,००० !!! क्या विगत १४ अप्रैल को शुरू हुयी इ-मंडी इन छोटे, अनपढ़ और कम जोत वाले किसानों की मदद कर पायेगी ?
एनएसएसओ की ही एक रिपोर्ट के अनुसार देश का आधे से ज्यादा अन्नदाता (५२%) कर्जे में डूबा हुआ है. दक्षिण के राज्यों में यह आंकड़ा तो बहुत गंभीर हो चला है. आंध्र प्रदेश के ९३%, तेलंगाना के ८८%, तमिलनाडु के ८३% और कर्नाटक के ७४% किसान क़र्ज़ के बोझ के नीचे दबें हैं. महाराष्ट्र – जहाँ से किसानों की आत्महत्या की दुखद खबर आती ही रहती है, वहां यह आंकड़ा ६२% है. कैसे इतने क़र्ज़ में डूबे किसान की आय में वृद्धि हो पायेगी ? हर किसान पर आज औसतन 47 हजार रुपये का कर्ज है. अगर कभी फसल अच्छी हो भी गयी तो कमाई सूदखोर ले जायेगा. जरुरत है देश भर में सूक्ष्म-वित्त संस्थाओं (माइक्रो-फाइनेंस) का जाल बिछाने की.
दरअसल खेती फायदे का सौदा हो सकती है यदि जोत बड़ी हो, पर्याप्त संसाधन उपलब्ध हों और उत्पादकता अच्छी हो. पर हमारे देश में लगभग ९०% जोत २ हेक्टयर या इससे कम है. राष्ट्रीय औसत १.१५ हेक्टेयर का है. इतनी कम ज़मीन में क्या उपज मिलेगी ? ऊपर से हमारी उत्पादकता भी बहुत कम है. चीन की तुलना में भारत में प्रति हेक्टेयर धान का उत्पादन 3,590 किलो है जबकि वहां उत्पादन 6,686 किलो है. इस कम उत्पादकता का बड़ा कारण है सिंचाई के साधनों का अभाव. देश की कुल जोत का सिर्फ एक तिहाई ही सिंचित है, बाकी सब भगवान भरोसे है. कम जोत और ऊपर से बढ़ती लागत – जिसमे खाद, बीज, कीट नाशक और मजदूरी शामिल हैं, ने खेती को घाटे का सौदा बना दिया है. वस्तुस्थिति यह है कि इसीलिए जहाँ बड़े किसान और कृषि-कंपनिया खेती से करोड़ों, अरबों का टैक्स-फ्री मुनाफा कमा रही हैं, वहीँ हमारा किसान दाने-दाने को मोहताज़ हो रहा है.
यह स्थिति तभी सुधर सकती है जब सरकार और निजी-क्षेत्र कृषि में निरंतर निवेश करें और ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि से इतर रोज़गार के साधन उपलब्ध कराएँ. साथ ही सहकारी खेती को – जिसमे कई किसान साथ मिल कर खेती करें – को बढ़ावा दिया जाये. कृषि में शोध हो और ड्राई-लैंड फार्मिंग की तकनीकों को बड़े पैमाने पर अपनाया जाये जिससे बरसात पर निर्भरता कम हो. ज्ञातव्य है कि यह वही तकनीक है जिसने ब्राज़ील के सवाना को हरा-भरा बनाया है और रेगिस्तान जैसे इज़रायल को कृषि क्रांति का अगुआ.
अन्नदाता की आय बढ़ाना अब सिर्फ सरकार ही नहीं हम सब की जिम्मेदारी है. क्योकि अगर हमारा अन्नदाता नहीं बचा तो हम भी नहीं बचेंगे !
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