पिछले दो वर्ष देश में सूखे के हालात रहे. पानी की कमी से मानसून पर आश्रित हमारी खेती को नुक्सान हुआ. अन्नदाता घाटे में रहा. इस वर्ष इंद्र देवता की देश पर बड़ी कृपा है. लगभग पूरे देश में औसत से अधिक वर्षा हो रही है. उत्तरी और पूर्वी राज्यों में जगह-जगह बाढ़ और जल-प्लावन की स्थिति बन गयी है. लाखों हेक्टयेर ज़मीन पर खड़ी फसल डूब गयी है. किसान फिर मुसीबत में है. सूखा हो या बाढ़, मरना हमारे अन्नदाता को ही है.
देश का मानस किसान की मजबूरी से बेखबर है. ८० रुपये किलो टमाटर हो या १०० रुपये किलो प्याज, सब जगह हाय-तौबा मच जाती है. मध्यम-वर्ग सवाल उठाता है कि हम घर कैसे चलायें. समाचार-पत्र बड़े-बड़े सम्पादकीय लिखते हैं और राजनीतिक दल सड़कों पर उतर आते हैं. पर जब यही टमाटर, आलू, प्याज २-३ रुपये किलो बिकता है, तब कोई यह प्रश्न नहीं पूछता कि किसान अपना घर कैसे चलाएगा ? होटल में ३०० रुपये की एक प्लेट दाल खाने वाले देश में दालों के बढ़ते दाम पर आंसू बहाते हैं. टिप में ५० रुपये देने वाले, सब्जी वाले से पांच रुपये के लिए उलझ जाते हैं. अजब विडम्बना है.
आज देश में दूसरी हरित-क्रांति की बात हो रही है. पर इसके पीछे किसान का भला कम, हम सब की मजबूरी ज्यादा है. बढ़ती जनसंख्या की जरुरत पूरी करने के लिए 2020-21 तक भारत को 281 मिलियन टन अनाज की ज़रूरत होगी और इसके लिए उत्पादन बढ़ाना होगा. पर कृषि-योग्य भूमि लगातार घट रही है. दूसरी हरित-क्रांति के माध्यम से कम भूमि में अधिक उत्पादन के तरीकों पर विचार हो रहा है.
पर क्या हम फिर से अपनी गलती दोहराने जा रहे हैं ? १९६० के दशक में हुई पहली हरित-क्रांति ने हमें भीख का कटोरा उठाने से भले ही बचा लिया हो पर इसके दूरगामी परिणाम नकारात्मक रहे हैं. १९६७ से १९८० तक हमारा अनाज-उत्पादन त्वरित गति से बढ़ा पर उसके बाद यह धीमा हो गया. उत्पादकता बनाये रखने के लिए रासायनिक उर्वरकों और कीट-नाशकों पर हमारी निर्भरता बढती चली गयी. देश को इसकी भारी कीमत अदा करनी पड़ी है. जहाँ एक ओर पंजाब, हरियाणा, महाराष्ट्र जैसे कुछ राज्य समृद्ध हुए वहीँ बिहार, उड़ीसा जैसे पिछड़े इलाके और पिछड़ गए. अर्थ-व्यवस्था में क्षेत्रीय असंतुलन बढ़ गया.
पहली हरित-क्रांति में पूरा ध्यान गेहूँ और धान पर रहा परिणामतः जहाँ हमारा गेहूँ का उत्पादन ४० गुना बढ़ गया वहीँ ज्वार, बाजरा, रागी जैसा मोटा, पौष्टिक अनाज हमारी थाली से गायब हो गया. नतीजा यह है कि कुपोषण आज हमारी राष्ट्रीय समस्या बन गयी है.
ऊपर से गलत-फहमी यह है कि हरित-क्रांति से हमारे किसान खुशहाल हुए हैं. असलियत तो यह है कि किसान कहीं खुश नहीं है. कृषि आय लगातार घटती जा रही है. हरियाणा में जाट, राजस्थान में गुज्जर और गुजरात में पाटीदार आन्दोलन में जिस तरह से कल के समृद्ध किसान नौकरी और आरक्षण के लिए सड़कों पर आ रहे हैं, उससे ज़ाहिर है की खेती से उनका गुज़ारा नहीं हो रहा है.
एनएसएसओ की 2014 की रिपोर्ट के अनुसार देश के कुल 52 फीसदी कृषि-आश्रित परिवार कर्ज में डूबे हैं। हर परिवार पर औसत 47,000 रुपए क़र्ज़ है. बदहाली का अन्दाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि पिछले सत्रह वर्षों में लगभग तीन लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं. अधिकतर आत्महत्याओं के मूल में कर्ज है, जिसे चुकाने में किसान असमर्थ हैं. पाँच राज्यों- महाराष्ट्र, कर्नाटक, आन्ध्रप्रदेश, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में किसानों की आत्महत्या की दर सबसे अधिक रही है. महाराष्ट्र की हालत सबसे ज्यादा खराब है पर गुजरात और पंजाब में भी किसान मौत को गले लगा रहा है.
पंजाब में तो दोहरी मार पड़ रही है. यहाँ कल की उर्वरा-भूमि आज ज़हरीली हो गयी है. कई इलाकों के पानी, मिट्टी और अन्न-सब्जियों में यूरेनियम तथा रेडॉन के तत्व पाये गये हैं. आर्सेनिक और फ़्लोराइड की उपस्थिति भी दर्ज की गई है. खेती के लिये कीटनाशकों, उर्वरकों तथा रसायनों के अंधाधुंध उपयोग के कारण पंजाब के मालवा और राजस्थान से लगे बड़े क्षेत्र में कैंसर महामारी की तरह फ़ैल गया है. हालत यह है की भटिंडा से बीकानेर चलने वाली एक ट्रेन का नाम ही कैंसर-एक्सप्रेस पड़ गया है क्योंकि इसमें प्रतिदिन बड़ी संख्या में कैंसर के मरीज़ पंजाब से अपना इलाज करवाने बीकानेर आते हैं।
पूरे देश में बड़ी संख्या में बेसहारा किसान शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं. 2007 से 2012 के बीच करीब 3.2 करोड़ किसान अपनी जमीन और घर-बार बेच कर शहरों में आ गए. 2011 की जनगणना के अनुसार हर रोज ढाई हजार किसान खेती छोड़ रहे हैं. नए लोगों में से कोई खेती करना नहीं चाहता.
अब प्रश्न यह है कि किसान उगाएगा नहीं तो लोग खाएँगे क्या ? बढती आबादी का पेट कौन भरेगा ? किसानी कोई करना नहीं चाहता लेकिन खाना सबको है. इसलिए दूसरी हरित-क्रांति तो चाहिए ही पर एक अलग तरह की समेकित हरित-क्रांति जो न केवल हमारा अन्न-उत्पादन पढाये बल्कि हमारे अन्नदाता को भी तरक्की दे. साथ ही ध्यान न केवल पेट भरने की ओर हो बल्कि पोषण, पर्यावरण-संरक्षण और ग्रामीण-रोज़गार का भी सृजन भी हो.
इसके लिए जरूरी है की हम विश्व-भर में प्रचलित सफल तकनीकों को अपनाएं. इजराएल से ड्राई-लैंड फार्मिंग सीखें जो सूखे क्षेत्रों में उत्पादकता बढ़ाये. ब्राजील से वर्षा-जल का प्रबंधन सीखें. घटती जोत को देखते हुए पोलीहाउस (संरक्षित कृषि), हाइड्रोपोनिक्स व् सौयललेस खेती अर्थात बिना ज़मीन के कृत्रिम स्थिति में कर सकने वाली नई प्रौद्योगिकियों को विकसित करने का प्रयास करें. जैविक-खेती बढ़ाएं क्योंकि प्रयासों के बाद भी इसका दायरा बहुत कम है और उत्पादन काफी महंगा है. सरकार को इसे मिशन-मोड में लेना चाहिए.
आज कृषि को एक लाभकारी व्यवसाय का स्वरुप देने की भी आवश्यकता है जिससे किसान अधिक कमा सके और ग्रामीण युवक खेती को दोयम दर्जे का न समझ कर गर्व-पूर्वक अपनाएं.
और सबसे महत्वपूर्ण यह है कि हम किसान के प्रति अपनी मानसिकता बदलें. हम याद रखें कि दो-तिहाई आबादी को पीछे छोड़ कर न हम आगे बढ़ सकते हैं न देश आगे बढ़ सकता है.
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