खगोलशास्त्र और गणित ज्योतिष - आशीष जोग

युगभारती के WhatsApp समूहों पर "खगोलशास्त्र और गणित ज्योतिष" विषय पर १८ अगस्त २०१६ से २७ नवम्बर २०१६ तक सम्प्रेषित चर्चा का संकलन

18/08/16

हम सब ने कभी न कभी आकाश में विचरण करते ग्रहों और नक्षत्रों का अवलोकन किया है। इस अवलोकन से हम सब के मानस में भिन्न भिन्न प्रकार के भाव आते हैं।

सूर्य प्राची में उदय होता है और पश्चिम में अस्त होता है। इसका कारण सूर्य नहीं है बल्कि पृथ्वी का अपनी धुरी पर घूमना है।

जिस प्रकार सूर्य पूर्व में उदित होकर पश्चिम में अस्त होता है उसी प्रकार सभी खगोलीय पिंड पूर्व से उदय होकर पश्चिम में अस्त हो जाते हैं। इसका कारण इन पिंडों की गति न होकर पृथ्वी का घूर्णन है।

किन्तु इसके भी कुछ अपवाद हैं।
हमारे सौर मंडल के सभी ग्रहों से उसी प्रकार सूर्योदय और सूर्यास्त होता है जैसे कि हमें पृथ्वी से दिखाई देता है। किन्तु इसके कुछ अपवाद हैं।

बुध (mercury) में कुछ स्थानों पर वर्ष के कुछ दिनों में सूर्योदय तो होता है किन्तु दोपहर के बाद सूर्य उल्टी दिशा में चलते हुए पूर्व दिशा में ही अस्त हो जाता है।

सूर्य की आभासीय गति का ऐसा दृश्य हमें पृथ्वी से तो दिखाई नहीं देता किन्तु अन्य ग्रहों की इसी प्रकार की आभासीय उल्टी गति हमें निरन्तर दिखाई देती है।

इसे वैज्ञानिक भाषा में apparent retrograde movement कहा जाता है।

जितने भी ग्रह पृथ्वी से परे हैं उन सभी की ऐसी उल्टी गति वर्ष के कुछ दिनों में देखी जा सकती है।

ग्रहों की गति की परिभाषा मैं ज्योतिषीय और वैज्ञानिक दोनों आधारों पर करने का प्रयास करूँगा। साथ ही जिस गणितीय माडल पर मैं संप्रति अपने सीमित दायरे में कुछ शोधकार्य करने का प्रयास कर रहा हूँ उसकी भी चर्चा करूँगा किन्तु किसी और दिन। जैसा मैंने पहले ही कहा कि आज संभवत: इस विषय पर चर्चा का उचित अवसर नहीं है।

यह प्रेषण copy paste नहीं था। प्रयासपूर्वक कुछ जानकारी को आपके समक्ष रुचिकर रूप से प्रस्तुत करने का एक तुच्छ प्रयास था।

19/08/16

जो विषय मैंने कल प्रारंभ किया था उसी को आगे बढ़ा रहा हूँ।

ग्रहों की चाल और स्थिति की गणना ज्योतिष में भी होती है और विज्ञान में भी। किन्तु दोनों के दृष्टिकोण में अन्तर है।

इस अन्तर को समझाने के लिये मैं रेलगाड़ी और विमान प्रवास के उदाहरण का प्रयोग करना चाहूँगा।

जब आप रेलगाड़ी या पृथ्वी पर चलने वाले किसी वाहन पर बैठते हैं तो आपको अपनी चाल का आभास अन्य वस्तुओं के सापेक्ष अपनी चाल से हो जाता है। किन्तु विमान के प्रवास में किसी सापेक्षता की अनुपस्थिति में आपको अपनी या विमान की चाल का आभास नहीं होता।

ज्योतिष में ग्रहों की चाल और स्थिति की गणना राशियों के सापेक्ष की जाती है जबकी विज्ञान में ग्रहों की चाल और स्थिति की गणना ग्रहों की कक्षा में उनकी स्थिति के अनुसार की जाती है।

पहले बात ज्योतिष की।

आप सब ने आकाश में तारों को प्राय: देखा होगा। यद्यपि आकाश हमें एक विशाल गुम्बद के जैसा दिखाई देता है फिर भी हमें आकाश और तारों का द्वि-आयामी (2 dimensional) दृश्य ही दिखता है। अर्थात उनकी पृथ्वी से दूरी हमें दिखाई नहीं देती।

जो आकाशीय पिंड हमें दिखाई देते हैं उनमें से अधिकांशत: तारे हैं किन्तु साथ ही आकाश में हमें सौर मंडल के सभी ग्रह भी दिखाई देते हैं। दोनों में अन्तर यह है कि तारे ग्रहों के सापेक्ष पृथ्वी से बहुत दूर हैं। इतने दूर कि उन्हें हम सौर मंडल के सापेक्ष लगभग स्थिर मान सकते हैं।

तारों के सापेक्ष ग्रहों की गति स्पष्ट रूप से उसी प्रकार देखी जा सकती है जैसे स्थिर वृक्षों के सापेक्ष रेलगाड़ी की गति पहचानी जा सकती है।

इस गुम्बद रूपी द्वि-आयमी आकाश का जो दृश्य हमें दिखाई देता है वह ज्यामितीय भाषा में १८० अंश (180 degree) दृश्य है।

पूर्ण द्वि-आयामी दृश्य ३६० अंश दृश्य है। इस पूर्ण दृश्य को ज्योतिष ने १२ राशियों में बाँटा है। इस हिसाब से हर राशि के हिस्से में ३० अंश आते हैं।

इन १२ राशि खण्डों की पहचान आकाश में स्थिर रूप से दृश्यमान तारों की विभिन्न आकृतियों से की गयी है।

समझने के लिये राशियों को आप १ से १२ खंड समझ लीजिये जो आकाश के ३६० अंशों को १२ बराबर भागों में बाँटते हैं। सौर मंडल के नव ग्रह इन १२ राशियों के सापेक्ष गतिमान दिखाई देते हैं।

ज्योतिष में ग्रहों की स्थिति की गणना इन १२ राशियों के सापेक्ष होती है।

उदाहरणार्थ जब ज्योतिष में कहते हैं कि बुध (mercury) कन्या राशि में प्रवेश कर रहा है इसका अर्थ यह है कि बुध ३६० अंश के उस ३० अंश में प्रवेश कर रहाहै जिसे कन्या राशि का नाम दिया गया है।

मान लीजिये कि आप किसी ऐसे कक्ष में बैठे हैं जो गोल है। इस कक्ष की दीवारें ३६० अंश का प्रतीक हैं जिन्हें १२ खण्डों में बाँटकर उनपर १२ राशियों के नाम लिखे हैं।

आप इस कक्ष के केन्द्र में एक कुर्सी पर बैठे हैं जो अपनी धुरी पर घूम रही है और एक चक्कर २४ घण्टे में लगाती है। उसी प्रकार जैसे कि पृथ्वी लगाती है। मान लीजिये कि इस कुर्सी पर बैठकर बिना गर्दन घुमाये आपको आपको एक बार में १८० अंश का दृश्य दिखाई देता है।

अब कल्पना कीजिये कि आपके और इस गोल कमरे की दीवारों के बीच में ९ ग्रह गतिमान हैं। आपको हर ग्रह कमरे की दीवारों पर चित्रित किसी न किसी राशि की पृष्ठभूमि में दिखाई देगा।

इस प्रकार हर ग्रह की स्थिति की गणना संबन्धित राशि के सापेक्ष की जा सकती है।

हर ग्रह की स्थिति किसी न किसी राशि के ३० अंशों के सापेक्ष नापी जाती है। यह ग्रहों की गति और स्थिति की गणना का मूल सिद्धान्त है।

वैज्ञानिक सिद्धान्त की चर्चा फिर कभी। आज के लिये इतना ही।

शुभरात्रि।

20/08/16

कल की चर्चा में कुछ बातें छूट गयीं थीं ।

कल मैंने कहा था कि ज्योतिष में नव ग्रहों की स्थिति को १२ राशियों के सापेक्ष दर्शाया जाता है। यह पूरी तरह से सही नहीं है।

९ ग्रहों में पृथ्वी भी शामिल है किन्तु पृथ्वी को ज्योतिष गणना में नहीं लिया जाता है क्योंकि पृथ्वी से पृथ्वी की चाल और स्थिति को नहीं देखा जा सकता है।

पृथ्वी के स्थान पर सूर्य की स्थिति को दर्शाया जाता है जो परोक्ष रूप से पृथ्वी की चाल और स्थिति को ही दर्शाता है। कैसे?

पृथ्वी सूर्य का चक्कर १ वर्ष या १२ महीनों में लगाती है किन्तु पृथ्वी से देखने पर पृथ्वी के सापेक्ष ऐसा प्रतीत होता है कि सूर्य पृथ्वी का १ चक्कर १२ महीनों में लगाता है।

इस प्रकार सूर्य १२ महीनों में १२ राशियों से गुज़रता है। इसका एक विशेष महत्व है। किसी व्यक्ति के जन्म के समय सूर्य जिस राशि में होता है उस व्यक्ति की वही राशि मानी जाती है।

सूर्य के अलावा चन्द्रमा की चाल और स्थिति भी ज्योतिष गणना में शामिल किया जाता है।

कोई ग्रह एक राशि में कितना समय व्यतीत करता है इसकी गणना कैसे की जा सकती है? कोई ग्रह अपनी कक्षा में सूर्य का एक चक्कर जितने समय में पूरा करता है उतने समय में वह १२ राशियों से होकर गुज़रता है।इस हिसाब से एक राशि में ग्रह अपने orbital period का १२वाँ भाग बिताना चाहिये। किन्तु ऐसा नहीं होता है। इसका कारण है ग्रहों की आभासी उल्टी गति (apparent retrograde motion) जिसका उल्लेख मैंने दो दिन पूर्व इस चर्चा के प्रारंभ में किया था।

इस आभासी उल्टी गति के कारण अधिकाँश ग्रह एक राशि से निकल कर उल्टी चाल के कारण फिर उसी राशि में चले जाते हैं जिसके कारण वे किसी राशि में औसत से अधिक तो किसी राशि में औसत से कम समय बिताते हैं। आज के लिये इतना ही। शेष फिर कभी।

किसी ने व्यक्तिगत रूप से एक प्रश्न पूछा है किन्तु मैं उत्तर युगभारती के मंच पर देना चाहूँगा जिससे सभी सदस्य लाभान्वित हो सकें। प्रश्न है कि शनि की साढ़े साती क्या होती है?

मेरा शोधकार्य ग्रहों की गति और स्थिति की गणना तक ही सीमित है। उसी सीमा में रह कर मैं इस प्रश्न का उत्तर दे रहा हूँ।

मोहित जैन:  एक और प्रश्न: सूर्य की गति पूर्व से पश्चिम दिशा की ओर होती है परंतु सूर्य ग्रहण की अवस्था में ग्रहण की गति पश्चिम से पूर्व की ओर क्यों होती है? (ग्रहण पश्चिम दिशा के देशों में पहले दिखता है)

शनि अपनी कक्षा में सूर्य का एक चक्कर लगभग ३० वर्ष में लगाता है। इस हिसाब से शनि एक राशि में औसत रूप से २.५ वर्ष रहता है। जब शनि किसी व्यक्ति की जन्म राशि (चन्द्रमा की स्थिति अनुसार) से एक पहले की राशि में प्रवेश करता है तब से लेकर जब शनि मूल राशि के ठीक बाद की राशि में रहता है उस ७.५ वर्ष के काल को साढ़े साती कहते हैं।

उदाहरण के लिये तुला राशि वालों की साढ़े साती तब प्रारम्भ होगी जब शनि उसके ठीक पहले की राशि अर्थात कन्या राशि में प्रवेश करेगा और तब समाप्त होगी जब शनि तुला राशि के ठीक बाद की राशि अर्थात वृश्चिक राशि से निकलेगा।

मोहित तुम्हारे प्रश्न का उत्तर देने के लिये कुछ अध्ययन करना पड़ेगा। शीघ्र उत्तर देने का प्रयास करूँगा।

26/08/16

मैने पिछले सप्ताह सौर मंडल के विषय में ज्योतिष शास्त्र के दृष्टिकोण से कुछ जानकारी आपके सम्मुख रक्खी थी। उस चर्चा में कुछ महत्वपूर्ण तथ्य छूट गये थे जिनके उल्लेख के बिना यह चर्चा अधूरी रह जायेगी।

साथ ही दो दिन पूर्व मोहित जी ने भी एक प्रश्न पूछा था- "एक और प्रश्न: सूर्य की गति पूर्व से पश्चिम दिशा की ओर होती है परंतु सूर्य ग्रहण की अवस्था में ग्रहण की गति पश्चिम से पूर्व की ओर क्यों होती है? (ग्रहण पश्चिम दिशा के देशों में पहले दिखता है)"

मैंने पहले कहा था कि ज्योतिष में नव ग्रहों की गति एवं स्थिति की गणना १२ राशियों के सापेक्ष की जाती है। तत् पश्चात मैंने इस कथन को संशोधित करते हुए कहा था कि नव ग्रहों में पृथ्वी सम्मिलित नहीं है और उसके स्थान पर सूर्य की और साथ ही चन्द्रमा की स्थिति दर्शायी जाती है।
वास्तव में ये संशोधन न होकर विषय का चरण-बद्ध विस्तार है।
विषय के अगले चरण में यह जोड़ना चाहूँगा कि सौर मंडल के तीन और ग्रह ज्योतिष गणना में शामिल नहीं हैं- युरेनस, नेपच्यून और प्लूटो।

इन ३ ग्रहों के न शामिल होते हुए भी ज्योतिष में ९ आकाशीय पिंडों कैसे संभव हुए? एक के स्थान पर चन्द्रमा शामिल हो गया और बचे हुए २ ग्रहों के स्थान पर दो काल्पनिक पिंड राहु और केतू को शामिल किया गया है। इन दो काल्पनिक ग्रहों को छायाग्रह कहते हैं।

राहू और केतु काल्पनिक अवश्य हैं किन्तु यह कल्पना वैज्ञानिक सिद्धान्तों पर आधारित है। कैसे?

सूर्य की आभासी कक्षा उसी तल (plane) पर है जिस पर पृथ्वी सूर्य का चक्कर लगाती है। चन्द्रमा की कक्षा सूर्य की इस आभासी कक्षा से लगभग ५ अंश झुकी हुई है।  ये दोनों कक्षाएँ एक दूसरे को दो बिन्दुओं पर प्रतिच्छेदित करती हैं। इसे समझने के लिये कल्पना कीजिये कि दो चूड़ियों को आपस में इस प्रकार फँसा लिया जाये जिससे उनके बीच का कोण ५ अंश का हो।

ये दो चूड़ियाँ एक दूसरे को दो बिंदुओं पर स्पर्श करेंगी। ये दो बिंदु ही राहू और केतु हैं। ये काल्पनिक अवश्य हैं किन्तु अपनी गति और स्थिति से ये किसी वास्तविक ग्रह का आभास देते हैं।

ज्यामिति के दृष्टिकोण से राहू और केतु का विशेष महत्व है। हम सब जानते हैं कि सूर्य और चन्द्र ग्रहण के लिये एक आवश्यक स्थिति है पृथ्वी, सूर्य और चंद्रमा का एक सीधी रेखा में आना।

यह सीधी रेखा द्वि आयामी न होकर त्रिआयामी होती है। यह संयोग तब होता है जब चन्द्रमा राहू या केतु की स्थिति में आता है। चन्द्रमा अपनी कक्षा में पृथ्वी की आवर्तन लगभग १ महीने में करता है जिसका अर्थ यह हुआ कि चंद्रमा राहू या केतु की स्थिति में हर १५ दिन में आता है किन्तु हर बार ग्रहण का योग नहीं बनता। ग्रहण का योग तब बनता है जब चंद्रमा राहू या केतु की स्थिति में हो और सूर्य भी पृथ्वी और चंद्रमा की सीध में आ जाये।

जब मैं राहू और केतु का उल्लेख करता हूँ तो यह समझ लेना आवश्यक है कि ये न तो कपोल कल्पनाएँ है न ही अवैज्ञानिक अवधारणाएँ हैं। वैज्ञानिक भाषा में राहू और केतु को north and south lunar nodes कहा जाता है।

मेरे विचार से अब मोहित जी के प्रश्न का उत्तर देने की सही भूमिका बन चुकी है।
सूर्य ग्रहण पृथ्वी के कुछ ही स्थानों से देखा जा सकता है। वास्तव में सूर्य ग्रहण सौर मण्डल का वह योग है जब चंद्रमा सूर्य को पूर्ण रूप से या आंशिक रूप से ढक लेता है। इसे पूर्ण या आंशिक सूर्य ग्रहण कहते हैं।

पूर्ण सूर्य ग्रहण पृथ्वी के किसी भी स्थान से लगभग ७-८ मिनट तक देखा जा सकता है। पृथ्वी पर यह बिन्दु जहाँ से सूर्य ग्रहण देखा जा सकता है पश्चिम से पूर्व दिशा की ओर घूमता है।

पर इसके भी अपवाद हैं अर्थात कुछ विषेश परिस्थितियों में यह बिन्दु पूर्व से पश्चिम दिशा में भी घूमता है किन्तु इस अपवाद की चर्चा फिर कभी।

आम तौर पर सूर्य ग्रहण पृथ्वी से पश्चिम से पूर्व की ओर घूमता प्रतीत होता है। क्यूँ? जबकि सूर्य की आभासी गति पूर्व से पश्चिम की ओर है।

जैसा मैंने पहले कहा कि पूर्ण सूर्य ग्रहण पृथ्वी के एक स्थान से लगभग ७-८ मिनट तक दृश्यमान रहता है। इसका कारण है पृथ्वी, सूर्य और चंद्रमा में से सबसे अधिक गतिमान पिंड की गति। सर्वाधिक गतिमान चंद्रमा है जो पश्चिम से पूर्व दिशा में पृथ्वी का आवर्तन करता है। यही कारण है कि पृथ्वी से हमें सूर्य ग्रहण पश्चिम से पूर्व दिशा की ओर घूमता प्रतीत होता है।

वैसे तो मैं आज की चर्चा में कई और महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा भी करना चाहता था जैसे कि सूर्य की उत्तरायण और दक्षिणायण गति और महाभारत में भीष्म पितामह के प्राण त्याग के क्षण का महत्व। किन्तु समय और स्थान की सीमाओं में रहते हुए इस चर्चा को आज यहीं विराम दूँगा। आपकी प्रतिक्रिया से मुझे इस चर्चा को आगे बढ़ाने की सकारात्मक प्रेरणा मिलेगी।

यदि आपने इस संप्रेषण को पढ़ा है तो आपके धैर्य और रूचि  दर्शन के लिये अनेकानेक धन्यवाद। शुभरात्रि।

27/08/16

कल की चर्चा में कुछ बातें छूट गयी थीं जिनका उल्लेख आज करना चाहूँगा।

कल मैंने उत्तरायण और दक्षिणायण का उल्लेख किया था। आज की चर्चा इसी विषय पर है।

हम सभी ने पढ़ा है कि पृथ्वी अपनी धुरी पर भी घूमती है और साथ ही सूर्य का आवर्तन भी करती है। पृथ्वी की धुरी की दिशा उत्तर-दक्षिण है और इसका पृथ्वी के घूर्णन की दिशा से संबन्ध के वैक्ज्ञानिक नियम को दाहिने हाथ का नियम कहते हैं। इस नियम के अनुसार यदि आप अपने दाहिने हाथ को इस प्रकार मोड़े कि उँगलियाँ एक ढ़ीली मुष्टिका के रूप में हों और अंगूठा सीधी हो। ऐसी अवस्था में अंगूठा उत्तर दिशा दिखाता है और उँगलियाँ पृथ्वी के अपनी धुरी के सापेक्ष घूमने की दिशा दर्शित करती हैं। इस नियम के अनुसार पृथ्वी अपनी धुरी पर पश्चिम से पूर्व दिशा की ओर घूमती है और यही कारण है कि पृथ्वी से देखने पर हमें सूर्य पूर्व से पश्चिम दिशा की ओर जाता दिखाई देता है।

पृथ्वी की धुरी पृथ्वी की सूर्य के आवर्तन की कक्षा के सापेक्ष २३.४ अंश झुकी हुई है। इसके परिणाम स्वरूप पृथ्वी से देखने पर सूर्य की गति ठीक पूर्व पश्चिम न होकर कभी उत्तर की ओर तो कभी दक्षिण की ओर झुकी दिखाई देती है।

यह जान लेना आवश्यक है कि पृथ्वी का यह झुकाव स्थिर नहीं है किन्तु यह चर्चा फिर कभी करूँगा।

आपने यह प्रत्यक्ष रूप से अनुभव किया होगा कि आपके घर के जिस भाग में गर्मियों में धूप आती है सर्दियों में उसी भाग में धूप नहीं आती।

पृथ्वी की विषुवत रेखा द्वारा निर्धारित तल पृथ्वी की सूर्य के आवर्तन की कक्षा द्वारा निर्धारित तल को दो बिन्दुओं पर प्रच्छेदित करती है उसी प्रकार जैसा कि कल मैंने चन्द्रमा के संदर्भ में दो चूड़ियों का उदाहरण देते हुए समझाया था।

यह दो बिन्दु ही उत्तरायण और दक्षिणायण के बिन्दु हैं। उत्तरायण सूर्य की वह अवस्था है जब वह विषुवत रेखा के पार करते हुए उत्तरी गोलार्ध में प्रवेश करता है और दक्षिणायण इसका ठीक उल्टा है।

आपने संभवत: पढ़ा होगा कि महाभारत युद्ध के दसवें दिन पितामह भीष्म शिखण्डी की ओट से चलाये हुये अर्जुन के बाणों की शरशैया पर आ पड़े। मृत्यु समीप भी थी और अवश्यंभावी भी किन्तु फिर भी भीष्म ने प्राण त्याग के लिये ५८ दिन प्रतीक्षा की। इसका कारण यह है कि उस समय सूर्य दक्षिणायण में था और ऐसी दशा में प्राण त्याग को शुभ नहीं माना जाता। उत्तरायण की प्रतीक्षा में भीष्म ने शरशैया पर ५८ दिन व्यतीत किये।

उत्तरायण पर सूर्य मकर राशि में प्रवेश करता है और इस दिन को हम मकर संक्रान्ति के नाम से जानते हैं। इसका उल्टा अर्थात दक्षिणायण कर्क संक्रान्ति से आरंभ होता है क्यूँकि कर्क राशि मकर राशि से १८० अंश पर स्थित है। कर्क संक्रान्ति का वैसा महत्व नहीं है जैसा मकर संक्रान्ति का है क्यूँकि उत्तरायण को हमारी परंपरा में शुभ माना गया है।
संक्रान्ति वह तिथि है जब सूर्य एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश करता है। इस हिसाब से १२ राशियों के अनुरूप एक वर्ष में १२ संक्रान्तियाँ होती हैं किन्तु विशेष महत्व मकर संक्रान्ति का ही है जो १४ या १५ जनवरी को पड़ती है।

मकर संक्रान्ति की तिथि से अर्थात अर्थात १४/१५ जनवरी से ५८+ १० दिन पीछे जाकर हम महाभारत युद्ध के प्रारम्भ बोने की तिथि की गणना कर सकते हैं किन्तु स्मरण रहे कि मकर संक्रान्ति की यह तिथि पृथ्वी की धुरी के २३.४ अंश झुकाव पर आधारित है और जैसा मैंने पहले संकेत दिया कि यह झुकाव स्थिर नहीं है। तात्पर्य यह कि महाभारत युद्ध के प्रारंभ की तिथि की गणना के लिये हमें उस काल में पृथ्वी का झुकाव और तदनुरूप मकर संक्रान्ति की तिथि की गणना करनी पड़ेगी। यह चर्चा फिर कभी। आज इस चर्चा को यहीं विराम देता हूँ। शुभरात्रि।

01/09/16

आज की चर्चा के दो उद्देश्य हैं- एक पिछले सप्ताह की चर्चा को आगे बढ़ाना और दूसरा पिछले सप्ताह की चर्चा पर उठाये गये कुछ प्रश्नों के उत्तर खोजने का प्रयास करना। संयोग से पिछले सप्ताह की भाँति ही इन दोनो उद्देश्यों को एक ही चर्चा में पूरित करना संभव है।

इस चर्चा को पहले विचार मंथन समूह पर प्रेषित किया जा रहा है और बाद में अन्य समूहों पर अग्रसारित किया जायेगा जिसमें कुछ समय लग सकता है। आप में से जो इच्छुक हों वो विचार मंथन समूह में सम्मिलित हो सकते हैं।

पिछले सप्ताह मैंने कहा था कि पृथ्वी मात्र अपनी धुरी पर ही नहीं घूमती, पृथ्वी की धुरी भी घूमती है। इस कारण पृथ्वी से दृश्य खगोलीय पिंडों की गति और स्थिति की गणना भी उतनी ही जटिल हो जाती है।

ग्रहों की स्थिति की गणना में इसे एक संशोधन के रूप में लिया जाता है।

इस संशोधन को प्राय: अयनांश या अयनांश संशोधन भी कहा जाता है।

पृथ्वी के अपनी धुरी पर घूमने की गति की तुलना किसी लट्टू से की जा सकती है।

यदि आपने लट्टू की गति को ध्यान से देखा होगा तो आपने देखा होगा कि लट्टू न सिर्फ अपनी धुरी पर घूमता है बल्कि उसकी धुरी भी शंकुलाकार (conical) पथ पर घूमती है।
लट्टू की धुरी का निचला सिरा भूमि के संपर्क में होने के कारण स्थिर रहता है और ऊपरी सिरा एक वृत्ताकार कक्षा में आवर्तन करता है। धुरी के सापेक्ष यह गति एक शंकु के रूप में दिखाई देती है।

इसी प्रकार पृथ्वी की धुरी का ऊपरी सिरा अर्थात उत्तरी ध्रुव अपनी एक भिन्न कक्षा में आवर्तन करता है। इसका आवर्तन काल लगभग २७००० वर्ष है।

इसके कारण पृथ्वी की धुरी का सूर्य के सापेक्ष निरंतर परिवर्तित होता रहता है किन्तु अत्यन्त धीमी गति से।

आज के समय में पृथ्वी की धुरी का सूर्य के सापेक्ष झुकाव २३.४ अंश है।

आईये अब इसके संदर्भ में उत्तरायण की चर्चा करें।

सर्वप्रथम आईये पहले समझें कि उत्तरायण का क्या अर्थ है। आपने इससे मिलते जुलते कई और शब्द सुने होंगे जैले कि रामायण, परायण इत्यादि।

अयन का शाब्दिक अर्थ है उस दिशा में चलना। इसके अनुसार उत्तरायण का अर्थ हुआ उत्तर दिशा में चलना, किसका? सूर्य का।

सूर्य की पृथ्वी के सापेक्ष आभासी गति के चार महत्वपूर्ण पड़ाव हैं।

ये चार पड़ाव दो प्रकार के युग्म के रूप में देखे और समझे जा सकते हैं। ये युग्म सूर्य की आभासी कक्षा पर परस्पर १८० अंश पर स्थित हैं।

पहला युग्म है संक्रन्ति। जैसा मैंने पिछले सप्ताह कहा था संक्रन्ति वह तिथि है जब सूर्य एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश करता है। इस प्रकार एक वर्ष में १२ राशियों की १२ संक्रान्तियाँ होती हैं। किन्तु इन १२ संक्रान्तियों में से २ संक्रान्तियाँ प्रमुख हैं- मकर और कर्क संक्रान्तियाँ।

इन दो संक्रान्तियों का खगोलीय महत्व यह है कि मकर संक्रान्ति पर सूर्य दक्षिण में अपनी अन्तिम अवस्था में होता है और मकर संक्रान्ति के पश्चात सूर्य दक्षिण दिशा से उत्तर दिशा में चलना प्रारंभ करता है।

यह क्षण उत्तरायण की शाब्दिक परिभाषा पर खरा उतरता है। सूर्य की आभासी कक्षा का दूसरा महत्वपूर्ण युग्म है विषुव। दो विषुव हैं वसन्त विषुव और शरद विषुव। विषुव की तिथि को दिन और रात्रि का अन्तराल समान होता है क्योंकि विषुव तिथियों को सूर्य विषुवत रेखा पर होता है। वसन्त विषुव पर सूर्य दक्षिणी गोलार्ध से उत्तरी गोलार्ध में प्रवेश करता है और शरद विषुव पर इसका ठीक उल्टा होता है।

आज के लिये इस चर्चा को यहीं विराम देता हूँ। कल इस विषय पर आगे चर्चा करूँगा।

शुभरात्रि।


02/09/16

आज की चर्चा भी कल की भाँति ही द्विउद्देश्यीय है- एक उद्देश्य है कल की चर्चा को आगे बढ़ाना और दूसरा आपके द्वारा पूछे गये प्रश्नों का उत्तर देने का प्रयास करना।

कल मैंने अयनांश का उल्लेख किया था। यह संभवत: ज्योतिष शास्त्र का सर्वाधिक विवादित विषय रहा है। भारतीय ज्योतिष शास्त्र जिसे वैदिक ज्योतिष भी कहते हैं जिस प्राचीन ग्रंथ पर आधारारित है वह है वराहमिहिर द्वारा संकलित, संपादित और कुछ हद तक संशोधित - सूर्य सिद्धांत। वराहमिहिर ५ शताब्दि के प्रमुख गणितज्ञ और खगोल वैज्ञानिक थे जिन्होंने इस विषय को आर्यभट्ट के संपर्क में आने के बाद चुना था।

आर्यभट्ट और वराहमिहिर को त्रिकोणमिति का जनक माना जाता है। उन्होंने अपने ग्रन्थों में ज्या और कोज्या (sin and cos) का उल्लेख किया है। ज्या किस प्रकार अरब में पहुँच कर जिब हुआ और कैसे अरब के रास्ते यूरोप पहुँच कर sin बना प्रकरण इस प्रकरण की चर्चा फिर कभी।
02/09/16, 10:03:11 PM: Ashish Jog: वराहमिहिर वास्तव में सूर्य सिद्धान्त के रचयिता नहीं थे। सूर्य सिद्धान्त का असली रचयिता मयासुर को माना जाता है जिसका उल्लेख रामायण में हुआ है। मय रावण की पत्नी मंदोदरी का पिता था।

मेरा अनुमान थोड़ा भिन्न है। मेरा मानना है कि मय द्वारा रचित सूर्य सिद्धान्त संभवत: माया सभ्यता से आया है। माया सभ्यता भारतीय सभ्यता जितनी ही प्राचीन थी और मय देश दक्षिणी अमरीका में वहाँ बसा था जहाँ आज कोलंबिया और वेनेंज़ुएला स्थित है।

माया सभ्यता द्वारा विकसित कैलेंडर २०१२ में काफ़ी चर्चा में था किन्तु यह चर्चा भी फिर कभी।
अब उन प्रश्नों के उत्तर देने की सही भूमिका बन चुकी है जो मोहित जी और अक्षय जी ने उठाये थे।

प्रश्न यह था कि क्या उत्तरायण और मकर संक्रान्ति एक ही तिथि है। यदि है तो solstice २१ दिसंबर को और मकर संक्रान्ति १४ जनवरी को क्यों पड़ती है।

माया सभ्यता के लोग सम्भवतः भारत से ही गए है। उस समय अलास्का और रूस आपस में जुड़े थे

Solstice और उत्तरायण एक ही हैं। सूर्य सिद्धान्त के अनुसार उत्तरायण और मकर संक्रान्ति एक ही तिथी पर पड़ते थे किन्तु पृथ्वी की धुरी के आवर्तन के कारण मकर संक्रान्ति जो लगभग २००० वर्ष पूर्व २१ दिसंबर को पड़ती थी पृथ्वी की धुरी के खिसकने के कारण आज १४ जनवरी तक खिसक गयी है।

दो प्रकार के ज्योतिष शास्त्र हैं- सायन और निरायन। भारतीय ज्योतिष शास्त्र निरायन सिद्धान्त पर आधारित है और पश्चिमी ज्योतिष शास्त्र सायन पद्धति पर आधारित है।

अयनांश संशोधन की आवश्यकता निरायन पद्धति में ही होती है, सायन पद्धति में पृथ्वी की धुरी का विस्थापन अपने आप सम्मिलित होता है। यही कारण है कि पश्चिमी ज्योतिष के अनुसार मकर संक्रान्ति आज भी २१ दिसंबर को ही पड़ती है जो तिथि उत्तरायण की है।

भारतीय ज्योतिष में अयनांश संशोधन को लेकर मतैक्य नहीं रहा है और भिन्न भिन्न ज्योतिषज्ञ अयनांश संशोधन के भिन्न भिन्न सिद्धान्त मानते रहे हैं।

इस विषमता का संज्ञान लेते हुए नेहरू के शासनकाल में १९५७ में एन सी लाहिरी समिति का गठन हुआ जिसका उद्देश्य अयनांश संबन्धित विषमताओं का समाधान खोजना था।

फिर क्या हुआ? इसकी चर्चा फिर कभी। आज की चर्चा को यहीं विराम देता हूँ।

शुभरात्रि।

09/09/16

विषय का प्रवर्तन हुआ था एक उल्लेख से जो मैंने चलते चलते न जाने किस संदर्भ में किया था। मैंने कई सप्ताह पूर्व किसी संदर्भ में यूँ ही उल्लेख किया था सौर मंडल के गणितीय माडल का जिस पर आपमें से कुछ मित्रों ने, विशेष रूप से कमल त्रिपाठी जी ने स्नेहपूर्वक मुझसे आग्रह किया कि मैं इस विषय पर अपने विचार प्रस्तुत करूँ। इसी आग्रह के परिणामस्वरूप मैंने कुछ सप्ताह पूर्व अपने विचार इस मंच पर और युगभारती के कुछ और मंचों पर आपके समक्ष प्रस्तुत करने के तुच्छ प्रयास का प्रवर्तन किया था।

इसी विषय पर आज आपके समक्ष पुन: अपने विचार प्रस्तुत करने की धृष्टता कर रहा हूँ। आशा है कि आपमें से कुछ सदस्यों को यह प्रस्तुति रुचिकर लगेगी।

जिस उल्लेख के साथ यह चर्चा प्रारंभ हुई थी वह पूर्णत: वैज्ञानिक और गणितीय था किन्तु विषय विस्तार की प्रक्रिया में विषय को रोचक बनाने के उद्देश्य से मैंने यूँही इस विषय के ज्येतिषीय पक्ष का उल्लेख कर दिया था यह सोचकर कि एक दो संप्रेषणों के बाद मैं मूल विषय पर लौट आऊँगा किन्तु आपके प्रश्नो नें, विषेशत: मोहित जी और अक्षय जी के रोचक प्रश्नों ने न सिर्फ इस पक्ष को कई सप्ताह तक जीवन्त रक्खा बल्कि मुझे भी इस दिशा में कुछ और स्वाध्याय की प्रेरणा दी।

यहाँ मैं यह स्पष्ट करना चाहूँगा कि ज्योतिष शास्त्र के दो पक्ष हैं- गणित ज्योतिष और फलित ज्योतिष और इनमें से मेरी रुचि एवं अध्ययन मात्र गणित ज्योतिष में है जबकि संभवत: फलित ज्योतिष एक अधिक प्रचलित एवं रुचिकर विषय है।

इस प्रस्तावना के साथ आज मैं मूल विषय पर लौटता हूँ जो है सौर मंडल का गणितीय माडल।

ग्रहों की चाल स्तिथि की गणना के लिये वैज्ञानिक दृष्टिकोण से हम जिस सिद्धान्त का प्रयोग करते हैं वह है कैपलर का सिद्धान्त। यह उल्लेख मैं अश्रुपूर्ण नयनों से इसलिये कर रहा हूँ क्योंकि कैपलर का सिद्धान्त सर्वप्रथम मुझे श्रद्धेय श्री ज्ञानेन्द्र जी ही ने ही सिखाया था।

कैपलर का प्रथम सिद्धान्त यह है कि ग्रह सूर्य का आवर्तन दीर्घ वृत्ताकार कक्षा में करते हैं। दूसरा सिद्धान्त यह है कि ग्रह समान समय में समान क्षेत्रफल तय करते हैं।

तीसरा सिद्धान्त मैं आप पर छोड़ता हूँ कि आपमें से जिन्हें इस विषय में रुचि हो वो इस पर अद्धयन कर इसकी जानकारी प्राप्त करें।

आज के लिये मात्र इतना ही शेष कल।

शुभरात्रि।
10/09/16

कल के विषय को आगे बढ़ा रहा हूँ।

ग्रहों की स्थिति और चाल की गणना कैपलर के सिद्धान्तों पर आधारित है। इस गणना को सरलीकृत करते हुए कक्षीय  आधार अंको (orbital elements) को प्रयोग करते हुए किया जा सकता है।

कुछ प्रमुख बातों का उल्लेख आवश्यक है। जैसा कि मैंने कल कहा था कि ग्रह सूर्य का आवर्तन दीर्घ वृत्तीय कक्षा में करते हैं इस कारण कक्षा में उनकी सूर्य से दूरी निरंतर परिवर्तित होती रहती है। जिस स्थिति में यह दूरी सबसे कम होती है उस स्थिति या अवस्था को perihelian कहते हैं।

Perihelian यूनानी शब्द है जिसका अर्थ है- peri अर्थात समीप और helious अर्थात सूर्य। इस प्रकार perihelian का अर्थ हुआ सूर्य के समीप।

अगला शब्द है aphelion, apo का अर्थ है दूरस्थित। इस प्रकार aphelion का अर्थ हुआ ग्रहों की वह स्थिति जब वह सूर्य से सबसे अधिक दूर हो।

इस प्रकार के अनेक तकनीकी शब्द हैं जिनका उल्लेख फिर कभी।

अब इस विषय की विषद गणितीय चर्चा में न जाते हुए यह मान लिया जाये कि किसी प्रकार से ग्रहों की स्थिति की गणना की जा सकती है जो मेरा शोध विषय है और मेरे द्वारा अब तक विकसित गणितीय माडल यह कर पा रहा है।

हर शोध कार्य का एक स्वप्न होता है। मेरे शोध कार्य का स्वप्न था ऐसे माडल का विकास करना जो ग्रहों की गति और स्थिति की न सिर्फ गणना करे बल्कि उसे त्रिआयामी दृश्य रूप में भी दर्शित कर सके।

जब मैंने इस विषय पर गणनाएँ प्रारंभ कीं तो MS Excel का उपयोग किया था किन्तु शीघ्र ही Excel की सीमाओं का भान हो गया। किन्तु इन सीमाओं को जानते और समझते हुए भी मैंने Excel पर ही इस माडल को विकसित करने की ठान ली और उसके लिये कुछ अतिरिक्त प्रयास भी करना पड़े तो उसे भी मैंने इस शोध कार्य का अंग मान लिया।

जब आप किसी कार्य को करने का संकल्प कर लेते हैं तो कोई न कोई मार्ग निकल ही आता है।
इसी प्रकार मुझे भी अंततोगत्वा और प्रयास पूर्वक Excel में त्रिआयामी animation विकसित करने का एक मार्ग मिल ही गया।

इस सफलता के बाद आज मैं उस स्थिति में पहुँच गया हूँ कि मेरा गणितीय माडल ग्रहों की गति और स्थिति की न सिर्फ real time गणना करता है बल्कि उन्हें त्रिआयामी दृश्य रूप में चलायमान (animated) रूप में भी दर्शाता है। यह Excel VBA के संयोग से संभव हो पाया है।

अगले चरण में मेरा उद्देश्य है कि ग्रहों की वैज्ञानिक आधार पर गणित इन स्थितियों को ज्योतिष की राशियों पर superimpose किया जाये।

हर शोध कार्य का कोई मौलिक उद्देश्य होना चाहिये और इस विषय पर अब तक का मेरा अद्धयन यह कहता है कि अब तक ऐसा प्रयास नहीं हुआ है।

अब देखिये यह प्रयास इस शोध को कहाँ तक ले जाता है। इस शोध में मुझे एक ओर वराहमिहिर रचित सूर्य सिद्धान्त के अध्ययन का अवसर मिला और दूसरी ओर NASA द्वारा प्रकाशित ग्रहों की real time स्थितियों के अध्ययन का भी अवसर मिला। मेरा मानना है कि हम जीवन भर विद्यार्थी रहते हैं। गीता में वर्णित अनेक योगों में एक योग ज्ञानयोग भी है। इसी दिशा में यह एक तुच्छ प्रयास है। देखिये यह कहाँ तक ले जाता है।

इसके साथ मैं इस विषय पर चर्चा को यहीं विराम देता हूँ। आशा है कि यह चर्चा आपको रुचिकर लगी होगी। आपके धैर्य और आपके उत्साहवर्धन के लिये अनेकानेक धन्यवाद।

शुभरात्रि।

15/09/16

हिन्दी चित्रपट का अपने समय का एक अत्यन्त लोकप्रिय गीत है - अभी न जाओ छोड़ कर के दिल अभी भरा नहीं। आज मेरी मन:स्थिति कुछ ऐसी ही है। जिस विषय पर मैं पिछले कई सप्ताहों से युगभारती के मंचों पर चर्चा करता आ रहा हूँ उसका पिछले सप्ताह उपसंहार हो गया। आज ऐसा लग रहा है जैसे पेट तो भर गया है किन्तु मन नहीं भरा।

जैसे कि आपके मनपसन्द किसी गीत को सुनकर आपको यह लालसा होती है उसी प्रकार मेरी भी यह लालसा है कि इसी विषय पर पुन: चर्चा की जाये किन्तु एक नवीन दृष्टिकोण से। जो पक्ष पिछली चर्चा में अनछुए रह गये थे उन पक्षों को उजागर किया जाये जिससे पुनरावृत्ति दोष से भी बचा जा सके।

आज की चर्चा का विषय है चन्द्रमा की कलाएँ जिन्हें अंग्रेज़ी में phases of moon कहते हैं। आपमें से कई सदस्यों को इस विषय का समुचित ज्ञान होगा। किन्तु कुछ सदस्य ऐसे भी होंगे जो संभवत: आज की चर्चा से लाभान्वित होंगे। आज की चर्चा उन्हीं सदस्यों को समर्पित है।

आज की चर्चा का विषय पूर्वनिर्धारित नहीं था। आज घर पहुँच कर मैंनें प्रतिदिन की भाँति आकाश का अवलोकन किया तो चतुर्दशी का चन्द्रमा आकाश में सबसे सर्वाधिक दैदिप्यमान पिंड दिखाई दिया जिसे देखकर यह विचार आया कि क्यूँ न आज की चर्चा इसी विषय पर की जाये।

इसके पहले कि मैं विषय पर चर्चा आरंभ करूँ एक संक्षिप्त टिप्पणी इस बात पर कि मैं प्रतिदिन आकाश का अवलोकन क्यूँ करता हूँ। मेरी अपनी रुचि के अतिरिक्त सबसे बड़ा कारण यह है कि आकाश की विशालता को देखकर हमें अपनी क्षुद्रता का बोध हो जाता है जो दिन भर के हमारे तमाम अनुभवों को बेअसर कर देता है जो हममें जाने अनजाने गुरूर भर देते हैं। यह आध्यात्मिक चर्चा फिर कभी।

अमावस्या से पूर्णिमा तक और पूर्णिमा से अमावस्या तक हम चंन्द्रमा की ३० कलाओं का दृष्यावलोकन कभी न कभी कर चुके हैं। इसके पीछे के वैज्ञानिक पक्षों की चर्चा आज का विषय है।

चंद्रमा पृथ्वी का एक आवर्तन २७ दिनों में करता है और साथ ही अपनी धुरी पर भी इतने ही दिनों में घूमता है। इस कारण हमें सदैव चंद्रमा का एक ही पक्ष दिखाई देता है।

क्योंकि चंद्रमा के आवर्तन की दिशा और पृथ्वी के अपनी धुरी पर घूर्णन की दिशा एक ही है इस कारण पृथ्वी से हमें चंद्रमा का आवर्तन काल २९ दिन का प्रतीत होता है।

क्यूँकि पृथ्वी से देखने पर चंद्रमा का आवर्तन काल २९ दिन का प्रतीत होता है और क्यूँकि हमें चंद्रमा का एक ही पक्ष दिखाई देता है इस कारण हमें चंद्रमा के दृष्य पक्ष जिसे हम दृष्य गोलार्ध भी कह सकते हैं उस दृष्य गोलार्ध के दिवस और रात्रि हमें चंद्रमा की कलाओं के रूप में दिखाई देते हैं।

एक दिन जो पृथ्वी पर २४ घंटे का होता है वह चंद्रमा पर पृथ्वी के सापेक्ष २८ दिन का होता है।
कृष्ण पक्ष चंद्रमा की रात्रि का पक्ष है जो लगभग १५ दिन तक चलती है और इसी प्रकार शुक्ल पक्ष चंद्रमा के एक दिन के बराबर है।

आशा है कि आज की चर्चा आपको रुचिकर लगी होगी। चंद्रमा से संबन्धित ही इतने रोचक विषय हैं कि जिन पर आने वाले कम से कम ६ माह तक चर्चा हो सकती है।

आज के लिये इतना ही शेष फिर कभी।

शुभरात्रि।

16/09/16

आज हम सबके प्रेरणा स्रोत आदरणीय आचार्य जी का भारतीय तिथि के अनुसार जन्मदिन है। इस संबन्ध में युगभारती के कुछ मंचों पर कुछ उहापोह की स्थिति भी दिखाई दी क्योंकि कुछ सदस्यों को यह उलझन थी कि उनकी जानकारी के अनुसार आदरणीय आचार्य जी का जन्मदिन २४ सितंबर को होता है। आज की चर्चा भी पिछली कतिपय चर्चाओं की भाँति ही द्विउद्देश्यीय है- पहला उद्देश्य आदरणीय आचार्य जी के जन्मदिन संबन्धी उहापोह के समाधान का एक क्षुद्र प्रयास और दूसरा कल की चर्चा को आगे बढ़ाना। पिछले कुछ सप्ताहों की चर्चा की भान्ति ही यह दोनों उद्देश्य एक ही उभयनिष्ठ चर्चा के माध्यम से परिपूर्ण हो सकते हैं। कल मैंने यह भी कहा था कि चन्द्रमा संबन्धित इतनी रोचक जानकारियाँ हैं कि जिनको लेकर महीनों चर्चा की जा सकती है। आज की चर्चा भी उसी चर्चा की श्रृंखला की एक कड़ी है।

दो प्रकार के तिथिपत्र ( calendar) संभव हैं - एक सौर्य और दूसरा चान्द्र (lunar). पश्चिमी तिथिपत्र सौर्य तिथिपत्र है जबकि भारतीय तिथिपत्र चान्द्र तिथिपत्र है।

भारतीय तिथिपत्र के अनुसार आज भाद्रपद मास की पूर्णिमा है जो आदरणीय आचार्य जी के जन्मदिन की चान्द्र तिथि है। यदि युगभारती के कुछ मंचों पर परिलक्षित उहापोह को सत्य माना जाये तो सौर्य तिथिपत्र के अनुसार उनके जन्मवर्ष पर सौर्य तिथिपत्र के अनुसार यह तिथि २४ सितंबर को पड़ी थी तो इन दोनों तिथियों को सत्य मानते हुए मेरी गणना के अनुसार आदरणीय आचार्य जी का जन्मवर्ष १९४२ होना चाहिये।

इसका संकेत आचार्य जी के पिछले कुछ उद् बोधनों से भी मिलता है। अभी कुछ ही दिन पहले आचार्य जी के ज्येष्ठ भ्राता जी का ८९ वाँ जन्मदिन मनाया गया और कभी आचार्य जी ने यह भी उल्लेख किया था कि उनके ज्येष्ठ भ्राता जी उनसे १५ वर्ष बड़े हैं। इस हिसाब से भी आचार्य जी का जन्मवर्ष १९४२ ही प्रतीत होता है।

२४ सितंबर १९४२ को भाद्रपद मास की पूर्णिमा थी और आज के दिन भी भाद्रपद मास की पूर्णिमा है। इसके अनुसार आचार्य जी का जन्मदिन भारतीय तिथिपत्र के अनुसार आज है और पश्चिमी अथवा सौर्य तिथिपत्र के अनुसार २४ सितंबर को पड़ेगा।

अब मन में यह सहज प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि किन वर्षों में भारतीय एवं पश्चिमी तिथिपत्रों की तिथियाँ एक ही दिन पड़ती हैं। सीधा और संक्षिप्त उत्तर यह है कि प्रत्येक १९ वर्ष के पश्चात। अर्थात जब आचार्य जी १९, ३८, ५७ वर्ष के हुए होंगे तब उनका जन्मदिन दोनों तिथिपत्रों के अनुसार एक ही तिथि पर पड़ा होगा। भविष्य में यह संयोग २०१८ वर्ष में पुन: आवर्तित होगा।

इस संयोग के पीछे की वैज्ञानिक चर्चा फिर कभी।

आज के लिये शुभरात्रि।


30/09/16

दो सप्ताह पूर्व की चर्चा में मैंने तिथिपत्र का संक्षिप्त उल्लेख किया था जिस पर कुछ टिप्पणियाँ भी प्राप्त हुईं थीं। उन टिप्पणियों का स्पष्टीकरण करते हुए और पिछली चर्चा को आगे बढ़ाते हुए मैं आज की चर्चा तिथिपत्र पर करना चाहूँगा।

तिथिपत्र (calendar) काल गणना की पद्धति है। विश्व में तिथिपत्र की अनेक पद्धतियाँ प्रचलित रहीं हैं। आज की चर्चा में इनमें से कुछ प्रमुख पद्धतियों की चर्चा होगी।

विश्व में प्रचलित तिथिपत्रों को मुख्यत: तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है- सौर्य, चान्द्र और इन दोनों का समन्वय।

मुख्य रूप से पश्चिमी देशों के तिथिपत्र सौर्य पद्धति पर आधारित हैं और पूर्वी देशों के चान्द्र या मिश्रित पद्धति पर आधारित हैं।

पहले बात करते हैं पश्चिमी सौर पद्धति की।
इसके पहले एक बात- वर्ष की कल्पना पृथ्वी के सूर्य के एक आवर्तन पर आधारित है, मास की कल्पना चन्द्रमा के पृथ्वी के एक आवर्तन पर आधारित है और दिन की कल्पना पृथ्वी के अपनी धुरी पर एक घूर्णन के काल पर आधारित है।

अब पश्चिमी कालपत्रों के सिद्धान्त पर लौटते हैं।

पहला प्रमुख पश्चिमी तिथिपत्र था जूलियन तिथिपत्र जिसका प्रादुर्भाव प्रसिद्ध रोमन सम्राट जूलियस सीज़र ने किया था।

जूलियन तिथिपत्र में हर चौथे वर्ष को लीप वर्ष माना गया और वसन्त विषुव की तिथि को २१ मार्च माना गया।

एक सायन वर्ष ३६५.२४२२ दिन का होता है। हर चौथे वर्ष को लीप वर्ष मानने के पीछे एक वर्ष के कालखण्ड को ३६५.२५ दिन मानना है।

इस विरोधाभास के कारण होने वाली त्रुटि एक शताब्दी में लगभग तीन चौथाई दिन के बराबर हो गयी हो गयी और सोलहवीं शताब्दी के आते आते वसंत विषुव की तिथी ११ मार्च तक घूम गयी।

इस कारण इस्टर की तिथी में भी उतनी ही तृटि आ गयी जिसके कारण उस समय के पोप को एक नये तिथिपत्र को स्थापित करना पड़ा जिसे आज हम ग्रेगोरियन तिथिपत्र के नाम से जानते हैं जिसे आज समस्त विश्व स्वीकार करता है।

इस ग्रेगोरियन तिथिपत्र की और भारतीय तिथिपत्र की चर्चा कल करूँगा। आज के लिये इतना ही।

शुभरात्रि।


02/10/16

तिथिपत्र पर परसों की चर्चा को आगे बढ़ा रहा हूँ। ग्रेगोरियन तिथिपत्र को फरवरी २४ सन १५८२ को तत् कालीन पोप ग्रेगरी द्वारा लागू किया गया। जूलियन तिथिपत्र की तृटिपूर्ण लीप वर्ष पद्धति का सुधार करते हुये उस वर्ष से १० दिन कम कर दिये गये जिसके कारण ४ अक्टूबर के बाद अगली तिथि १५ अक्टूबर रक्खी गयी। साथ ही लीप वर्ष की पद्धति में भी सुधार किया गया।

वर्ष १५८२ में १० दिन कम करने के कारण अगले वर्ष अर्थात सन १५८३ में वसन्त विषुव पुन: २१ मार्च पर लौट आयी।

लीप वर्ष के नियम को इस प्रकार संशोधित किया गया- हर वह वर्ष जो ४ से पूर्णत: विभाजित होता हो किन्तु १०० से विभाजित न होता हो लीप वर्ष माना गया। शताब्दि वर्ष यदि ४०० से विभाजित होते हों तभी लीप वर्ष माने गये।

इस प्रकार ग्रेगोरियन तिथिपत्र ४०० वर्षों के चक्र पर आधारित है जिसमें १४६०९७ दिन होते हैं। और इन ४०० वर्षों में एक दिन की औसत अवधि ३६५.२४२५ दिन के बराबर आती है जो औसत सायन वर्ष की अवधि ३६५.२४२२ दिन के निकट है। किन्तु अभी भी थोड़ी तृटि शेष है जो ३३०० वर्षों में १ दिन के बराबर होगी।

सायन वर्ष की ३६५.२४२२ दिनों की अवधि भी औसत अवधि है। प्रत्येक वर्ष के सायन वर्ष की अवधि एक वसन्त विषुव से दूसरे वसन्त विषुव के बराबर होती है जो हर वर्ष बदलती रहती है। सायन वर्ष की न्यूनतम अवधि ३६५ दिन ५ घण्टे ३५ मिनट और अधिकतम अवधि ३६५ दिन ६ घण्टे ५ मिनट तक होती है।

इस्लामिक तिथिपत्र विशुद्ध चान्द्र तिथिपत्र का एक उदाहरण है जिसमें एक मास चन्द्रमा की कलाओं के एक चक्र के बराबर होती है। इस तिथिपत्र का आरम्भ हिजरी से माना गया है जो जूलियन वर्ष +६२२  के ५ जुलाई के समकक्ष है।

विषम मास ३० दिन के और सम मास २८ दिन के माने गये हैं। इस प्रकार एक सामान्य वर्ष में ३५४ दिन होते हैं जो सामान्य सायन वर्ष से ११ दिन कम हैं। इस अन्तर के कारण इस्लामिक तिथिपत्र के मास सायन वर्ष के सापेक्ष खिसकते हुए ३३ वर्षों में पुन: उसी स्थान पर आ जाते हैं।

३३ वर्षों के इस क्रम में वर्ष २, ,,१०,१३,१६,१८,२१,२४,२६ और २९ लीप वर्ष माने गये हैं। लीप वर्ष को मिला कर ३३ वर्षों के क्रम में एक औसत वर्ष की अवधि चान्द्र वर्ष की वैज्ञानिक गणना के आधार पर निर्धारित अवधि से २.९ सेकेण्ड कम है।

आज की चर्चा को यहीं विराम दे रहा हूँ। शेष चर्चा फिर कभी। शुभरात्रि।
17/11/16

अभी हाल ही में पड़ी कार्तिक पूर्णिमा को चन्द्रमा का एक अद्भुत दृश्य देखने को मिला जिसे प्रचलित भाषा में Super Moon (महाचन्द्रमा) कहते हैं। यदि सदस्यों में रुचि हो तो इस विषय पर मुझे जो थोड़ी बहुत जानकारी है वह आपके साथ साझा करने में मुझे प्रसन्नता होगी।

18/11/16

जिन सदस्यों ने महाचन्द्रमा पर चर्चा के लिये अपनी रुचि प्रकट की है उनका ह्रदय से आभार।

आपने संभवत: दूरदर्शन में देखा होगा या समाचार पत्रों या इंटरनेट पर पढ़ा होगा कि पिछली कार्तिक पूर्णिमा को चन्द्रमा पिछले कई दशकों में सर्वाधिक दैदिप्यमान और आकार में बृहत्तम दिखाई दिया।

आज की चर्चा इसी और इससे संबन्धित विषयों पर है।

महाचन्द्रमा वह संयोग है जब चन्द्रमा पूर्णिमा के दिन पृथ्वी से निकटतम दूरी पर होता है।

मैंने सौर मंडल संबन्धित चर्चाओं में से किसी चर्चा में यह उल्लेख किया था कि ग्रह के संदर्भ में सूर्य के सापेक्ष निकटतम और अधिकतम दूरी के बिन्दुओं को perihelion और aphelion कहा जाता है। peri का यूनानी भाषा में अर्थ है निकटतम और helion का अर्थ है सूर्य।

चन्द्रमा के संदर्भ में perihelian और aphelion शब्दों का प्रयोग नहीं किया जा सकता है क्यूँकि चन्द्रमा सूर्य का नहीं वरन् पृथ्वी का आवर्तन करता है।

चन्द्रमा के संदर्भ में इन्हीं स्थितियों के लिये जिन शब्दों का प्रयोग किया जाता है वह हैं - perigee और apogee.

सौर्य मंडल के अन्य सभी आकाशीय पिंडो की भाँति चन्द्रमा भी पृथ्वी के चतुर्दिक दीर्घवृत्तीय कक्षा में परिक्रमा करता है। इस कारण चन्द्रमा की पृथ्वी से दूरी निरंतर परिवर्तित होती रहती है।

कल इसी विषय पर चर्चा को आगे बढ़ाने का प्रयास करूँगा। आज के लिये इतना ही।

शुभरात्रि।

24/11/16

महाचन्द्रमा के विषय में पिछले सप्ताह की चर्चा को आगे बढ़ा रहा हूँ। आशा है कि यह चर्चा आज ही पूर्ण हो जायेगी।

मैंने पिछली चर्चा में उल्लेख किया था कि सौर मंडल के अन्य पिंडो के समान चन्द्रमा भी पृथ्वी की परिक्रमा दीर्घवृत्तीय कक्षा में करता है जिसके दो में से एक केन्द्र पर पृथ्वी स्थित होती है।

Perigee चन्द्रमा की कक्षा का वह बिन्दु है जहाँ पर चन्द्रमा पृथ्वी से निकटतम दूरी पर होता है। Perigee का अर्थ है- peri मतलब पास और gee geo से बना है जिसका अर्थ है पृथ्वी।

महाचन्द्रमा वह संयोग है जब perigee पर पूर्णिमा हो। इस स्थिति में चन्द्रमा सामान्य की अपेक्षा अधिक बड़ा और अधिक चमकदार दिखाई देता है।

पूर्णिमा और अमावस्या तब पड़ती है जब सूर्य, पृथ्वी और चन्द्रमा एक रेखा में आ जाते हैं। पूर्णिमा में चन्द्रमा और सूर्य के मध्य में पृथ्वी स्थित होती है और अमावस्या को चन्द्रमा मध्य में आ जाता है।

पूर्णिमा और अमावस्या एक रात नहीं है बल्कि मात्र एक क्षण है क्योंकि चन्द्रमा निरन्तर चलायमान है और ये तीनों पिंड मात्र एक क्षण के लिये एक रेखा में आते हैं।

आप में से कुछ के मन में सहज प्रश्न आ सकता है कि चन्द्रमा पृथ्वी और सूर्य के एक रेखा में आने से तो चन्द्र और सूर्य ग्रहण होते हैं।

आपका अनुमान ठीक है किन्तु चन्द्र और सूर्य ग्रहण के लिये इन तीनों के एक रेखा में होने के साथ साथ इन चन्द्रमा का पृथ्वी के सूर्य की परिक्रमा की कक्षा के तल में भी होना आवश्यक है। यह संयोग चन्द्रमा की कक्षा के दो बिन्दुओं पर होता है जिन दो बिन्दुओं पर चन्द्रमा की कक्षा पृथ्वी की कक्षा को विच्छेदित करती है। इन बिन्दुओं को खगोल विज्ञान की भाषा में lunar nodes और ज्योतिष शास्त्र में राहू और केतु कहते हैं।

चन्द्रमा की धुरी भी स्थिर नहीं है और वह भी एक वृत्ताकार मार्ग पर घूमती है जिसका आवर्तन काल १८.६ वर्ष है।
इसी कारण राहू और केतु जिन्हें ज्योतिष में काल्पनिक ग्रह माना गया है इनका कक्षा काल १८.६ वर्ष है।

इसी कारण चन्द्रमा की कक्षा का तल भी निरन्तर परिवर्तित होता रहता है और १८.६ वर्ष बाद सूर्य के सापेक्ष पुन: उसी स्थिति पर लौटता है। इसी कारण prigee और apogee बिन्दुओं की स्थिति भी निरन्तर बदलती रहती है अर्थात चन्द्रमा की पृथ्वी से निकटतम और अधिकतम दूरी भी निरन्तर बदलती रहती है जिसका क्रम भी १८.६ वर्ष का है।

सामान्य महाचन्द्रमा का संयोग वैसे तो लगभग २ वर्ष में एक बार पड़ सकता है किन्तु वास्तविक अर्थ में महाचन्द्रमा का संयोग लगभग ६८ वर्ष में एक बार होता है जो पिछली कार्तिक पूर्णिमा को हुआ था जब चन्द्रमा की पृथ्वी से निकटम दूरी १८.६ वर्ष के क्रम की न्यूनतम थी।

इसके साथ ही महाचन्द्रमा पर यह चर्चा पूर्ण हुई। आशा है आपको रोचक लगी होगी। फिर किसी दिन किसी और चर्चा के साथ आपके समक्ष उपस्थित हूँगा। आज के लिये इतना ही।

शुभरात्रि।

27/11/16

मैंने एक बार कहा था कि अकेले चन्द्रमा के विषय में इतने रोचक तथ्य हैं कि यदि मैं रोज़ इन पर चर्चा करूँ तो कई महीने तक यह चर्चा चलती रहेगी। आज की चर्चा भी चन्द्रमा पर ही है।

आम धारणा यह है कि चन्द्रमा पृथ्वी की परिक्रमा इस लिये करता है क्यूँकि पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण बल चन्द्रमा पर सौर मंडल के किसी भी अन्य पिन्ड से अधिक है।

प्रथम दृष्टया यह तर्क संगत भी लगता है क्यूँकि पृथ्वी अन्य पिन्डों की तुलना में चन्द्रमा से सबसे पास है।

आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि चन्द्रमा पर सूर्य का गुरुत्वाकर्षण बल पृथ्वी की तुलना में लगभग दोगुना है। अत: चन्द्रमा वस्तुत: पृथ्वी की नहीं अपितु सूर्य की परिक्रमा करता है जिसकी कक्षा को पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण बल इस प्रकार मोड़ देता है जिससे यह आभास होता है कि चन्द्रमा पृथ्वी की परिक्रमा कर रहा है।
दूसरे दृष्टिकोण से देखें तो हम पृथ्वी और चन्द्रमा को एक ऐसी द्विपिंडीय प्रणाली मान सकते हैं जो सूर्य की परिक्रमा करती है।

द्विपिंडीय प्रणाली में दोनों पिंड एक दूसरे की परिक्रमा करते हैं। इसकी कल्पना आप उस खेल से कर सकते हैं जिसमें दो बच्चे एक दूसरे के दोनों हाथ पकड़ कर परस्पर गोल गोल घूमें। इस खेल को मराठी में 'फुगड़ी' कहते हैं। हिन्दी में भी इसका अवश्य कोई नाम होगा पर मुझे जानकारी नहीं है।

इस खेल में यदि दोनों व्यक्ति समान वज़न के हों तो दोनों के पैरों के निशान द्वारा बने वृत्त समान आकार के होंगे। किन्तु कल्पना कीजिये कि कोई भारी भरकम बड़ा व्यक्ति किसी छोटे बच्चे के साथ यह खेल खेले तो क्या होगा?

ऐसा प्रतीत होगा कि बड़ा व्यक्ति अपने ही स्थान पर खड़े हुये गोल घूम रहा है और बच्चा उसकी परिक्रमा कर रहा है। यही कल्पना पृथ्वी और चन्द्रमा के ऊपर भी लागू होती है।

ऐसी द्विपिंडीय प्रणाली के उभयनिषठ गुरुत्व केन्द्र को barry center कहते हैं और दोनों पिंड इसी केन्द्र के चतुर्दिक परिक्रमा करते हैं। पृथ्वी और चन्द्रमा का barry center पृथ्वी के अन्दर ही है और यह पृथ्वी की सतह से लगभग ४००० किलोमीटर की गहराई पर है।

कल्पना कीजिये कि कोई पिंड अपने अन्दर ही स्थित किसी बिन्दु की परिक्रमा कैसे करेगा?

पिछली कई चर्चाओं में मैंने पृथ्वी की धुरी के घूर्णन का उल्लेख किया है जिसका आवर्तन काल लगभग २७००० वर्ष का है। वस्तुत: पृथ्वी की धुरी के इस प्रकार घूर्णन का मुख्य कारण यही है। कुछ अन्य कारण भी हैं जिनकी चर्चा किसी और दिन करूँगा।

आज की चर्चा में बस इतना ही।

शुभरात्रि।
  


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