अपने पिछले लेख में मैंने लोकतंत्र के दुरुपयोग और उसके बिगड़ते स्वरूप का उल्लेख किया था. यह भी जिक्र किया था कि कैसे राजनीतिक दल लोकतंत्र के नाम पर अनाचार में संलिप्त रहते हैं. उसी कड़ी में आज जिक्र एक ऐसे मुद्दे का, जिसने न केवल लोकतंत्र को कमजोर किया है, बल्कि हमारी खुद्दारी और स्वाभिमान पर भी गहरी चोट की है. बात है उस खैरात की, जिसे हर राजनीतिक पार्टी वोटों के लिए खुले हाथों से बांट रही है.
पहले जिक्र उत्तर प्रदेश में चल रहे चुनावों का. प्रदेश के वर्तमान मुखिया अपनी सभाओं में यह कहते नहीं थक रहे हैं कि कैसे उन्होंने मुफ्त लैपटॉप बांटे और अब चुनाव जीतने पर मुफ्त स्मार्टफोन बांटेंगे. मतदाता को घूस देने की इस दौड़ में कोई पीछे नहीं है. सुशासन की दुहाई देनेवाली भाजपा भी उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में मुफ्त लैपटॉप और स्मार्टफोन का वादा कर रही है, वह भी एक जीबी डाटा के साथ. जाननेवाले जानते हैं कि इन प्रदेशों के पिछड़े कस्बों और गावों में इस फ्री लैपटॉप और डाटा का कितना और कैसा उपयोग होता है.
वहीं नेशनल-सैंपल-सर्वे के अनुसार, उत्तर प्रदेश में 18 से 35 वर्ष के आयुवर्ग में 1.30 करोड़ युवा बेरोजगार हैं. हाल ही में अखबारों की सुर्खियों में मन को झकझोरनेवाली यह खबर छायी थी कि कैसे प्रदेश की नगर-पालिकाओं में 40 हजार सफाई कर्मचारियों की नियुक्ति के लिए 18 लाख युवाओं ने आवेदन किया था, जिनमें अधिकांश स्नातक थे. अकेले कानपुर नगर पालिका में 7 लाख से ज्यादा आवेदन आये, जिसमें 5 लाख ग्रेजुएट और पोस्ट-ग्रेजुएट थे!
दुर्भाग्य से प्रदेश की सरकार युवाओं को उद्यमशील बनाने और उनके लिए रोजगार-सृजन के बजाय उन्हें रेवड़ियां बांटने में लग गयी. आज भी चुनाव विकास और सुशासन के मुद्दे पर कम, कौन कितनी खैरात देगा, इस पर ज्यादा लड़ा जा रहा है.
राजनीतिक खैरात बांटने का सिलसिला यूं तो बहुत पहले शुरू हो गया था, पर इसे विद्रूप बनाया तमिलनाडु की दिवंगत मुख्यमंत्री जयललिता ने, जिन्होंने मिक्सर-ग्राइंडर, टीवी, पंखे, बिजली, राशन आदि सब कुछ खैरात में बांटने की शुरुआत की. डीएमके भी पीछे नहीं रही. जो कुछ जयललिता बांटती थीं, करुणानिधि उसका दोगुना देने की बात करते थे. इसके मूल में विचार था कि शासन चाहे कैसा भी क्यों न हो, कानून व्यवस्था कितनी भी लचर क्यों न हो, बिजली, पानी मिले न मिले, भ्रष्टाचार के चाहे कितने भी आरोप क्यों न हों, मुफ्त की खैरात सब ठीक कर देगी. वोटर सब कुछ भूल जायेगा. एक दशक के ऊपर समय से तमिलनाडु में यही सब हो रहा है.
दिल्ली में भी आदर्शवाद और सुथरी राजनीति की बात करनेवाले अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली का चुनाव ही मुफ्त बिजली-पानी के नारे पर जीता. राजधानी दिल्ली के पढ़े-लिखे भी मुफ्त की खैरात के फेर में पड़ गये. अब कैसा लोकतंत्र है यह? सरकारें मतदाता की स्वतंत्र राय या मत के बजाय उसकी मुफ्तखोरी से बन रही हैं! क्या मायने हैं ऐसे लोकतंत्र के? किसे बेवकूफ बना रहे हैं हम?
साल 2013 में सर्वोच्च न्यायालय ने इस घृणित प्रवृत्ति का संज्ञान लिया था और खैरात बांटने को स्वतंत्र और निष्पक्ष मतदान के लिए बाधा मान कर चुनाव आयोग से इस पर रोक लगाने की बात कही थी. पर, सभी राजनीतिक दल इस पर लामबंद हो गये और छह राष्ट्रीय और 24 क्षेत्रीय दलों ने एकजुट होकर सर्वोच्च न्यायालय की टिपण्णी का विरोध किया. न्यायालय ने भी उनके दबाव में आकर अपना आदेश वापस ले लिया.
प्रश्न यह भी है कि हर जगह मुफ्त बंटती खैरात के लिए पैसे कहां से आते हैं? दरअसल, यह पैसा उन मतदाताओं की जेब से ही आता है, जिन्हें खैरात दी जाती है. तमिलनाडु में मुफ्त की बंदरबांट को वित्त-पोषित करने के लिए 1 प्रतिशत ‘फ्रीबी टैक्स’ का प्रस्ताव कार्यान्वयन में आया. कहा गया कि अगर यह टैक्स नहीं लगाया गया, तो शिक्षा और स्वास्थ्य के बजट में 30 प्रतिशत की कटौती करनी पड़ेगी. वहीं दिल्ली में केजरीवाल की खैरात दिल्ली जल-बोर्ड को 650 करोड़ की पड़ी, जो पैसा अंततः जनता से ही उगाहा जायेगा- टैक्स या अन्य किसी रूप में.
भारत के राजनीतिक दल और राजनेता तो जैसे हैं, वैसे हैं, पर यहां के सुधि समझे जानेवाले समाज और हमारे खुद्दारी और स्वाभिमान के मूल्यों को क्या हो गया है? क्या हम बिकाऊ हो गये हैं? क्या मुफ्त मिक्सी, टीवी, बिजली, पानी और लैपटॉप कुछ भी हमें खरीद सकते हैं? क्या देश का, समाज का और इसके नागरिकों का स्वाभिमान समाप्त हो गया है?
हाल ही में स्विट्जरलैंड में कुछ ऐसा हुआ, जो शायद हम सभी को शर्मसार कर देगा. हुआ यूं कि वहां की सरकार ने अपने नागरिकों की बेहतरी के लिए सभी नागरिकों- चाहे वे अमीर हों या गरीब- के लिए एक मूल मासिक-भत्ते का प्रावधान रखा. इसके अनुसार हर नागरिक को- चाहे उसकी अलग से आय क्यों न हो- सरकार 2,500 स्विस फ्रैंक यानी लगभग 1.75 लाख रुपये प्रतिमाह (21 लाख रुपये हर साल) देगी, जिसे वे जैसे चाहे खर्च करें. सरकार ने इसके लिए लोगों की राय मांगी. मुफ्तखोरों के हमारे देश में यह बात बहुत अजीब लगेगी कि रायशुमारी में तीन-चौथाई से ज्यादा स्विस नागरिकों ने इस प्रस्ताव को नकार दिया और सरकार से कह दिया कि हमें मुफ्त की खैरात नहीं चाहिए.
इसकी तुलना में हजारों साल की महान, गौरवशाली परंपरा के प्रतिनिधि हम अब कहां आ गये हैं? कहां गया हमारा गौरव, हमारा स्वाभिमान? और अब यहां से आगे हम कहां जायेंगे? इतिहास गवाह है कि जिस देश के नागरिक स्वाभिमानी नहीं होते हैं, उसका अंततः पराधीन होना तय होता है.
आज आवश्यकता है कि हम अपने युवाओं को मुफ्त की चीजों को लेने की प्रवृत्ति से दूर रखें और उन्हें स्वाभिमान के साथ जीना सिखायें. अपने-आप को जिम्मेवार कहनेवाले राजनीतिक दलों और राजनेताओं को भी सोचना होगा कि वोटों की लालच के चलते वे जो कर रहे हैं, वह देश की भावी पीढ़ी और उसके भविष्य के साथ खिलवाड़ है. उनका यह कार्य अक्षम्य है, जिसके लिए इतिहास उन्हें माफ नहीं करेगा.
पहले जिक्र उत्तर प्रदेश में चल रहे चुनावों का. प्रदेश के वर्तमान मुखिया अपनी सभाओं में यह कहते नहीं थक रहे हैं कि कैसे उन्होंने मुफ्त लैपटॉप बांटे और अब चुनाव जीतने पर मुफ्त स्मार्टफोन बांटेंगे. मतदाता को घूस देने की इस दौड़ में कोई पीछे नहीं है. सुशासन की दुहाई देनेवाली भाजपा भी उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में मुफ्त लैपटॉप और स्मार्टफोन का वादा कर रही है, वह भी एक जीबी डाटा के साथ. जाननेवाले जानते हैं कि इन प्रदेशों के पिछड़े कस्बों और गावों में इस फ्री लैपटॉप और डाटा का कितना और कैसा उपयोग होता है.
वहीं नेशनल-सैंपल-सर्वे के अनुसार, उत्तर प्रदेश में 18 से 35 वर्ष के आयुवर्ग में 1.30 करोड़ युवा बेरोजगार हैं. हाल ही में अखबारों की सुर्खियों में मन को झकझोरनेवाली यह खबर छायी थी कि कैसे प्रदेश की नगर-पालिकाओं में 40 हजार सफाई कर्मचारियों की नियुक्ति के लिए 18 लाख युवाओं ने आवेदन किया था, जिनमें अधिकांश स्नातक थे. अकेले कानपुर नगर पालिका में 7 लाख से ज्यादा आवेदन आये, जिसमें 5 लाख ग्रेजुएट और पोस्ट-ग्रेजुएट थे!
दुर्भाग्य से प्रदेश की सरकार युवाओं को उद्यमशील बनाने और उनके लिए रोजगार-सृजन के बजाय उन्हें रेवड़ियां बांटने में लग गयी. आज भी चुनाव विकास और सुशासन के मुद्दे पर कम, कौन कितनी खैरात देगा, इस पर ज्यादा लड़ा जा रहा है.
राजनीतिक खैरात बांटने का सिलसिला यूं तो बहुत पहले शुरू हो गया था, पर इसे विद्रूप बनाया तमिलनाडु की दिवंगत मुख्यमंत्री जयललिता ने, जिन्होंने मिक्सर-ग्राइंडर, टीवी, पंखे, बिजली, राशन आदि सब कुछ खैरात में बांटने की शुरुआत की. डीएमके भी पीछे नहीं रही. जो कुछ जयललिता बांटती थीं, करुणानिधि उसका दोगुना देने की बात करते थे. इसके मूल में विचार था कि शासन चाहे कैसा भी क्यों न हो, कानून व्यवस्था कितनी भी लचर क्यों न हो, बिजली, पानी मिले न मिले, भ्रष्टाचार के चाहे कितने भी आरोप क्यों न हों, मुफ्त की खैरात सब ठीक कर देगी. वोटर सब कुछ भूल जायेगा. एक दशक के ऊपर समय से तमिलनाडु में यही सब हो रहा है.
दिल्ली में भी आदर्शवाद और सुथरी राजनीति की बात करनेवाले अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली का चुनाव ही मुफ्त बिजली-पानी के नारे पर जीता. राजधानी दिल्ली के पढ़े-लिखे भी मुफ्त की खैरात के फेर में पड़ गये. अब कैसा लोकतंत्र है यह? सरकारें मतदाता की स्वतंत्र राय या मत के बजाय उसकी मुफ्तखोरी से बन रही हैं! क्या मायने हैं ऐसे लोकतंत्र के? किसे बेवकूफ बना रहे हैं हम?
साल 2013 में सर्वोच्च न्यायालय ने इस घृणित प्रवृत्ति का संज्ञान लिया था और खैरात बांटने को स्वतंत्र और निष्पक्ष मतदान के लिए बाधा मान कर चुनाव आयोग से इस पर रोक लगाने की बात कही थी. पर, सभी राजनीतिक दल इस पर लामबंद हो गये और छह राष्ट्रीय और 24 क्षेत्रीय दलों ने एकजुट होकर सर्वोच्च न्यायालय की टिपण्णी का विरोध किया. न्यायालय ने भी उनके दबाव में आकर अपना आदेश वापस ले लिया.
प्रश्न यह भी है कि हर जगह मुफ्त बंटती खैरात के लिए पैसे कहां से आते हैं? दरअसल, यह पैसा उन मतदाताओं की जेब से ही आता है, जिन्हें खैरात दी जाती है. तमिलनाडु में मुफ्त की बंदरबांट को वित्त-पोषित करने के लिए 1 प्रतिशत ‘फ्रीबी टैक्स’ का प्रस्ताव कार्यान्वयन में आया. कहा गया कि अगर यह टैक्स नहीं लगाया गया, तो शिक्षा और स्वास्थ्य के बजट में 30 प्रतिशत की कटौती करनी पड़ेगी. वहीं दिल्ली में केजरीवाल की खैरात दिल्ली जल-बोर्ड को 650 करोड़ की पड़ी, जो पैसा अंततः जनता से ही उगाहा जायेगा- टैक्स या अन्य किसी रूप में.
भारत के राजनीतिक दल और राजनेता तो जैसे हैं, वैसे हैं, पर यहां के सुधि समझे जानेवाले समाज और हमारे खुद्दारी और स्वाभिमान के मूल्यों को क्या हो गया है? क्या हम बिकाऊ हो गये हैं? क्या मुफ्त मिक्सी, टीवी, बिजली, पानी और लैपटॉप कुछ भी हमें खरीद सकते हैं? क्या देश का, समाज का और इसके नागरिकों का स्वाभिमान समाप्त हो गया है?
हाल ही में स्विट्जरलैंड में कुछ ऐसा हुआ, जो शायद हम सभी को शर्मसार कर देगा. हुआ यूं कि वहां की सरकार ने अपने नागरिकों की बेहतरी के लिए सभी नागरिकों- चाहे वे अमीर हों या गरीब- के लिए एक मूल मासिक-भत्ते का प्रावधान रखा. इसके अनुसार हर नागरिक को- चाहे उसकी अलग से आय क्यों न हो- सरकार 2,500 स्विस फ्रैंक यानी लगभग 1.75 लाख रुपये प्रतिमाह (21 लाख रुपये हर साल) देगी, जिसे वे जैसे चाहे खर्च करें. सरकार ने इसके लिए लोगों की राय मांगी. मुफ्तखोरों के हमारे देश में यह बात बहुत अजीब लगेगी कि रायशुमारी में तीन-चौथाई से ज्यादा स्विस नागरिकों ने इस प्रस्ताव को नकार दिया और सरकार से कह दिया कि हमें मुफ्त की खैरात नहीं चाहिए.
इसकी तुलना में हजारों साल की महान, गौरवशाली परंपरा के प्रतिनिधि हम अब कहां आ गये हैं? कहां गया हमारा गौरव, हमारा स्वाभिमान? और अब यहां से आगे हम कहां जायेंगे? इतिहास गवाह है कि जिस देश के नागरिक स्वाभिमानी नहीं होते हैं, उसका अंततः पराधीन होना तय होता है.
आज आवश्यकता है कि हम अपने युवाओं को मुफ्त की चीजों को लेने की प्रवृत्ति से दूर रखें और उन्हें स्वाभिमान के साथ जीना सिखायें. अपने-आप को जिम्मेवार कहनेवाले राजनीतिक दलों और राजनेताओं को भी सोचना होगा कि वोटों की लालच के चलते वे जो कर रहे हैं, वह देश की भावी पीढ़ी और उसके भविष्य के साथ खिलवाड़ है. उनका यह कार्य अक्षम्य है, जिसके लिए इतिहास उन्हें माफ नहीं करेगा.
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