आज़ादी के बाद से ही कांग्रेस और संघ के रिश्ते अच्छे नहीं
थे. अंग्रेजों ने विभाजन मूलतः मुस्लिम लीग और कांग्रेस के बीच में किया था. १९४६ के
प्रोविंशियल इलेक्शन में सभी मुसलामानों ने मुस्लिम लीग को वोट दिया था, जबकि सभी
हिन्दुओं ने - चाहे वो किसी भी पार्टी या विचारधारा के हों - संघ समेत - कांग्रेस को
वोट दिया था. पर विभाजन के बाद अधिकाँश हिन्दू जो अखंड भारत के पक्ष में थे, उनका कांग्रेस
से मोहभंग हो गया. गाँधी और पटेल यह जानते थे. इसलिए १५ अगस्त, १९४७ के
बाद बनी सरकार में गैर-कांग्रेसी हिन्दू नेताओं - जिनमे डा मुकर्जी और डा अम्बेडकर
थे - को मंत्रिमंडल में शामिल किया गया. इसके बावजूद देश में एक विपक्षी दल की आवश्यकता
१९४७ के बाद से ही महसूस की जाने लगी थी. उधर गाँधी जी की हत्या के बाद संघ और कांग्रेस
के रिश्ते तल्ख़ हो गए और संघ पर प्रतिबन्ध लग गया. बाद में जब संघ पर प्रतिबन्ध हटा
तब संघ भी राजनीतिक विकल्प पर विचार करने लगा हालांकि संघ के अन्दर से ही संघ को राजनीति
से अलग रखने की आवाज़े बुलंद थीं.
१९५० में सरदार पटेल की तबियत ख़राब होने और नेहरु-लियाकत पैक्ट के बाद जिसमे ईस्ट बंगाल के शरणार्थियों को पकिस्तान की दया पर छोड़ दिया गया, जिसका डा कुखार्जी ने विरोध किया. अनंतर में बंगाल में हिन्दुओं पर हो रहे अत्याचार व् नेहरु की काश्मीर नीति पर अपना विरोध दर्ज कराते हुए ८ अप्रैल १९५० को डा मुखर्जी ने मंत्रिमंडल से त्यागपत्र दे दिया. १४ अप्रैल को संसद में अपने अंतिम वक्तव्य में उन्होंने कहा की जितना नुक्सान विभाजन ने देश का नहीं किया उससे ज्यादा नुक्सान भविष्य में नेहरु की नीतियों से होने वाला है. इसके तुरंत बाद में दिल्ली में हुए एक अभिनन्दन समारोह में उन्होंने सभी राष्ट्रवादी ताकतों का आव्हान किया की वे आगे आयें और कांग्रेस का एक लोकतान्त्रिक विकल्प तैयार करें. सभी राष्ट्रवादियों, मुख्यतः हिन्दुओं ने इसका स्वागत किया और डा मुकर्जी की छवि एक देशभक्त राष्ट्रवादी की हो गयी. संघ से उनका कोई सीधा संपर्क नहीं था पर बलराज मधोक के मार्फ़त संघ के नेत्रित्व से उनकी चर्चा होती थी. जब उन्होंने राजनीतिक दल बनाने के लिए आर्य समाज - जो उस समय बहुत मजबूत था - और संघ से समर्थन माँगा, तब पहली बार में संघ ने उन्हें समर्थन नहीं दिया. पर संघ की संस्थानिक शक्ति और राष्टवादी विचारधारा से प्रभावित डा मुखर्जी हर कीमत पर संघ का साथ चाहते थे.
जब काफी प्रयास के बाद संघ का साथ नहीं मिला तब उन्होंने
कलकत्ता में 'इंडिया
पीपल्स पार्टी' नाम के
दल की घोषणा की. इससे संघ में थोड़ी खलबली मची और चूंकि संघ भी एक राजनीतिक विकल्प पर
विचार कर रहा था, इसलिए
डा मुखर्जी की पार्टी को समर्थन देने पर सहमति हुई. आदरणीय गुरु जी ने अत्यंत विचार
कर इस विषय में अनुमति दी - हालांकि वसंत राव ओक जैसे वरिष्ठ अधिकारी संघ के राजनीतिक
कदम के धुर विरोधी बने रहे. डा मुखर्जी को समर्थन देने के लिए शर्त रखी गयी - पहली
की दल का ध्वज भगवा हो और दूसरी की नाम हिंदी में हो. दो नामों का सुझाव दिया गया
- भारतीय लोकसंघ और भारतीय जनसंघ. डा मुखर्जी ने भारतीय जनसंघ नाम स्वीकार कर लिया.
२१ अक्तूबर १९५१ को दिल्ली में भारतीय जनसंघ का स्थापना अधिवेशन हुआ और इसमें सर्व-सम्मति
से डा मुखर्जी को अध्यक्ष बनाया गया.
डा मुखर्जी ने संघ से संगठन खड़ा करने के लिए अच्छे कार्यकर्ताओं
और अधिकारियों की मांग की. गुरु जी के सुझाव पर दीन दयाल जी, जो उस
समय तक उत्तर प्रदेश में प्रचारक थे, डा भाई महावीर और मौली चन्द्र शर्मा आदि को जनसंघ में
कार्य करने के लिए भेजा गया. २९-३१ दिसंबर, १९५२ को कानपूर में हुए जनसंघ के पहले
राष्ट्रीय अधिवेशन में दीन दयाल जी को अखिल भारतीय जनसंघ का महामंत्री नियुक्त किया
गया.
दीन दयाल जी का जनसंघ में रोल इसका बाद ही शुरू हुआ. डा
मुखर्जी की असामयिक मृत्यु के बाद पूरे संगठन को देश भर में खड़ा करने और उसे चलाने
का महती दायित्व दीन दयाल जी के कन्धों पर आ गया. १९५२ से १९६७ तक अध्यक्ष बदलते रहे
पर महा मंत्री दीन दयाल जी ही रहे. इस कालखंड में एक छोटे से अनाम दल को राष्ट्रीय
पहचान बनाने और उसे भविष्य में सत्ता योग्य बनाने का अत्यंत कठिन कार्य दीन दयाल जी
ने किया.
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