आल्हा/वीर छन्द- रँगे सियार - डॉ पवन मिश्र

अर्थमोह की इस आंधी में,
देखो कैसी चली बयार।
धर्म लबादा ओढ़े कितने,
घूम रहे हैं रँगे सियार।१।

भोले-भालों को छलते ये,
किया देश का बंटाधार।
अपनी झोली भरने को ही,
करें धर्म का ये व्यापार।२।

श्रद्धा की फसलें बस बोते,
नहीं दूसरा इनको काम।
धन वैभव के मद में रहते,
पैसा ही बस अल्लाराम।३।

कोई धारे कंठी माला,
कोई हाथ लिये कुरआन।
छद्मवेश में कुछ फादर तो,
ईसा से ही है अनजान।४।

राजनीति की शह पाकर ये,
भस्मासुर होते तैयार।
न्यायपालिका भी बेदम है,
इनके आगे नत सरकार।५।

टोपी, माला, क्रॉस पहन के,
धर्म चलाएं ठेकेदार।
इनसे मुक्ति दिला दो ईश्वर,
भारत माता करे पुकार।६।

शिल्प- 16,15 मात्राभार पर यति तथा पदांत में गुरु लघु की अनिवार्यता।

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