कल हिंदी-दिवस था. सरकारी स्तर पर एक कर्मकांड के तौर पर कई कार्यक्रम हुए. हिंदी के प्रचार-प्रसार की नयी योजनाएं बनीं. ज्यादातर जगहों पर हिंदी की मातम-पुरसी हुई. लोगों ने हिंदी की दशा का रोना रोया. साल-दर-साल यही हो रहा है. एक लीक पीटी जा रही है. पर यह उचित नहीं है. सच में अब समय आ गया है कि हिंदी की मातम-पुरसी करने के बजाय हम हिंदी का अभिनंदन करें. सरकारी उपेक्षा, दुर्दशा, पब्लिक स्कूलों के दुश्चक्र और अंगरेजी को थोपने के अनेक प्रयासों के बावजूद हिंदी न केवल फल-फूल रही है, बल्कि दिन-दूनी, रात-चौगुनी बढ़ रही है.
यह हिंदी की समृद्ध विरासत, अन्य भाषाओं व बोलियों के शब्दों को आत्मसात करने की क्षमता और सार्वभौमिक स्वीकार्यता का ही परिणाम है, कि आज हिंदी बिना किसी सरकारी घोषणा के व्यावहारिक तौर पर भारत की राष्ट्र-भाषा बन गयी है (संविधान में राज-भाषा का दर्जा है, राष्ट्र-भाषा का नहीं). सुदूर उत्तर में कारगिल और लेह-लद्दाख से लेकर दक्षिण में कन्याकुमारी, पूर्व में ईटानगर से लेकर पश्चिम में पोरबंदर तक, लक्षद्वीप से लेकर अंडमान तक सभी जगह हिंदी व्यापक स्तर पर बोली और समझी जा रही है.
अभी कुछ समय पहले की बात है, जब मध्य-भारत से आगे बढ़ने पर हिंदी की स्वीकार्यता पर संदेह होता था. दक्षिण भारत में तो हिंदीभाषी के लिए मुश्किल होना अपरिहार्य था. माना जाता था कि दक्षिण में अंगरेजी के बिना काम नहीं चलेगा. पर अब यह सब कल की बात हो गयी है. पूरे दक्षिण भारत में हिंदी व्यापक तौर पर बोली और समझी जाती है. कर्नाटक, आंध्रप्रदेश और तेलंगाना में हिंदी तेलुगु और कन्नड़ के बाद दूसरी सबसे ज्यादा बोली-समझी जानेवाली भाषा है. तमिलनाडु और केरल में लगभग हर जगह हिंदी का सहज व्यवहार हो रहा है.
साठ के दशक के हिंदी-विरोध से उपजे द्रमुक नेता करुणानिधि भले ही अब भी हिंदी में न बोलते हों, तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता आवश्यकता पड़ने पर धारा-प्रवाह हिंदी में बोलती हैं. तमिलनाडु में हिंदी सीखनेवालों की तादाद भी लगातार बढ़ रही है. गांधी जी द्वारा 1918 में स्थापित दक्षिण भारत हिंदी-प्रचार सभा आज एक महत्वपूर्ण संस्था बन गयी है. इसके द्वारा चलाये जा रहे हिंदी पाठ्यक्रमों में सम्मिलित होने वाले छात्रों की संख्या जो 2009 में 62,684 थी, 2013 में बढ़ कर 4,36,860 हो गयी. यह तमिलनाडु में हिंदी की बढ़ती स्वीकार्यता का सबसे बड़ा प्रमाण है.
भारत के पूर्वोत्तर में भी हिंदी बोलना अब उतना ही सहज है जितनी मुंबई या बेंगलुरु में. न केवल देश में, हिंदी फिल्मों और हिंदी के चर्चित टीवी कार्यक्रमों की वजह से पूरी दुनिया में हिंदी का डंका बज रहा है. अमेरिका से लेकर चीन तक कई विश्व-विद्यालयों में हिंदी पढ़ाई जा रही है. बड़ी संख्या में चीनी छात्र हिंदी सीखने भारत आ रहे हैं. कुछ वर्ष पूर्व तक ऐसी कल्पना करना भी मुश्किल था. इंटरनेट के प्रादुर्भाव से तो इसमें और इजाफा हुआ है. नेट पर हिंदी सिखानेवाली वेबसाइटों की बाढ़ आ गयी है. ऑनलाइन हिंदी सिखानेवालों की दुनिया भर में मांग बढ़ गयी है.
विश्व भर में हिंदीभाषी लोगों की तादाद बढ़ रही है. नेपाल, दक्षिण अफ्रीका, मॉरीशस, युगांडा, फिजी, सिंगापुर और खाड़ी देशों में बड़ी संख्या में हिंदी भाषी हैं. दुबई जैसे शहरों में तो आज हिंदी बोलचाल की भाषा बन गयी है. अमेरिका, इंगलैंड के कई शहरों में, एयरपोर्ट और रेस्तरां में आप हिंदी में बात कर सकते हैं. अजरबैजान, उज्बेकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, ताजिकिस्तान, अफगानिस्तान आदि में तो हिंदी गानों और फिल्मों की धूम है.
दरअसल, हिंदी का प्रचार अपने आप ही हो रहा है. सरकार कुछ करे या न करे, हिंदी स्वतः ही बढ़ रही है. हिंदी के इस विस्तार का मूल कारण उसका समावेशी स्वरूप है. आज सही मायनों में हिंदी भाषा की गंगा बन गयी है. कभी सिर्फ खड़ी बोली के तौर पर जानी जानेवाली संस्कृतनिष्ठ शब्दों से पूरित हिंदी आज देश की लगभग सभी भाषाओं और विदेशी भाषाओं से भी शब्दों को लेकर आत्मसात कर समृद्ध हो गयी है. भोजपुरी, मैथिली, मगही, बृज और अवधी जैसी समृद्ध भाषाओं और बोलियों के संगम ने इसे जन-जन की भाषा बना दिया है. आज हिंदी ज्यादा आधुनिक, विपुल शब्द-संपदा से भरपूर व बेहतर अभिव्यक्ति का माध्यम बन गयी है. रही सही कसर पूरी कर दी है, हिंदी फिल्मों और टीवी चैनलों के लोकप्रिय कार्यक्रमों ने, जिन्होंने हिंदी को दुनिया भर में लोगों के घरों में पहुंचा दिया.
हिंदी मीडिया का भी हिंदी के उत्थान में महत्वपूर्ण योगदान है. आज हिंदी अखबारों और पत्रिकाओं की हिंदी अनौपचारिक, सीधी, लोगों के सरोकार और भावनाओं से तारतम्य बिठानेवाली भाषा बन गयी है. स्थानीय बोलियों, लोक-साहित्य का भरपूर इस्तेमाल कर हिंदी को एक जन-भाषा, एक लोक-भाषा का स्वरूप दे दिया गया है. साथ ही इसको बड़ा समर्थन मिला है. सोशल मीडिया से जिसने हिंदी की ताकत को तकनीक से जोड़ा और परिणाम स्वरूप फेसबुक, ट्विटर और व्हाट्सएप्प जैसे माध्यमों में हिंदी के प्रयोग में विस्फोटक वृद्धि हुई. माइक्रोसॉफ्ट और गूगल जैसी कंपनियों ने हिंदी की इस ताकत को तो काफी पहले ही पहचान लिया था.
दरअसल, नब्बे के दशक में बाजार के खुलने के साथ ही हिंदी का भी व्यापक रूप से प्रचार हुआ. पूरे भारत में हिंदी ने एक संपर्क भाषा के रूप में स्वयं को मजबूती से स्थापित किया. आज चेन्नई, बेंगलुरु और त्रिवेंद्रम में न सिर्फ टैक्सी और होटलवाले हिंदी समझते और बोलते हैं, बल्कि अन्य व्यावसायिक प्रतिष्ठान भी हिंदी को अपना रहे हैं. सूचना-प्रौद्योगिकी ने भी इसमें बड़ी भूमिका निभायी है. उत्तर के लाखों नौजवान दक्षिण के विभिन्न शहरों में हैं. फलस्वरूप आज चेन्नई, बेंगलुरु, पुणे या हैदराबाद में हिंदी में काम चलाना ज्यादा आसान हुआ है.
कह सकते हैं कि हिंदी का भविष्य अब सुरक्षित है. भारत जैसे बड़े बाजार में उपभोक्ताओं से संपर्क करने के लिए हिंदी एक महत्वपूर्ण कड़ी है. इसलिए कोई कुछ करे या न करे, यह बाजार ही हिंदी की प्रासंगिकता को बनाये रखेगा
यह हिंदी की समृद्ध विरासत, अन्य भाषाओं व बोलियों के शब्दों को आत्मसात करने की क्षमता और सार्वभौमिक स्वीकार्यता का ही परिणाम है, कि आज हिंदी बिना किसी सरकारी घोषणा के व्यावहारिक तौर पर भारत की राष्ट्र-भाषा बन गयी है (संविधान में राज-भाषा का दर्जा है, राष्ट्र-भाषा का नहीं). सुदूर उत्तर में कारगिल और लेह-लद्दाख से लेकर दक्षिण में कन्याकुमारी, पूर्व में ईटानगर से लेकर पश्चिम में पोरबंदर तक, लक्षद्वीप से लेकर अंडमान तक सभी जगह हिंदी व्यापक स्तर पर बोली और समझी जा रही है.
अभी कुछ समय पहले की बात है, जब मध्य-भारत से आगे बढ़ने पर हिंदी की स्वीकार्यता पर संदेह होता था. दक्षिण भारत में तो हिंदीभाषी के लिए मुश्किल होना अपरिहार्य था. माना जाता था कि दक्षिण में अंगरेजी के बिना काम नहीं चलेगा. पर अब यह सब कल की बात हो गयी है. पूरे दक्षिण भारत में हिंदी व्यापक तौर पर बोली और समझी जाती है. कर्नाटक, आंध्रप्रदेश और तेलंगाना में हिंदी तेलुगु और कन्नड़ के बाद दूसरी सबसे ज्यादा बोली-समझी जानेवाली भाषा है. तमिलनाडु और केरल में लगभग हर जगह हिंदी का सहज व्यवहार हो रहा है.
साठ के दशक के हिंदी-विरोध से उपजे द्रमुक नेता करुणानिधि भले ही अब भी हिंदी में न बोलते हों, तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता आवश्यकता पड़ने पर धारा-प्रवाह हिंदी में बोलती हैं. तमिलनाडु में हिंदी सीखनेवालों की तादाद भी लगातार बढ़ रही है. गांधी जी द्वारा 1918 में स्थापित दक्षिण भारत हिंदी-प्रचार सभा आज एक महत्वपूर्ण संस्था बन गयी है. इसके द्वारा चलाये जा रहे हिंदी पाठ्यक्रमों में सम्मिलित होने वाले छात्रों की संख्या जो 2009 में 62,684 थी, 2013 में बढ़ कर 4,36,860 हो गयी. यह तमिलनाडु में हिंदी की बढ़ती स्वीकार्यता का सबसे बड़ा प्रमाण है.
भारत के पूर्वोत्तर में भी हिंदी बोलना अब उतना ही सहज है जितनी मुंबई या बेंगलुरु में. न केवल देश में, हिंदी फिल्मों और हिंदी के चर्चित टीवी कार्यक्रमों की वजह से पूरी दुनिया में हिंदी का डंका बज रहा है. अमेरिका से लेकर चीन तक कई विश्व-विद्यालयों में हिंदी पढ़ाई जा रही है. बड़ी संख्या में चीनी छात्र हिंदी सीखने भारत आ रहे हैं. कुछ वर्ष पूर्व तक ऐसी कल्पना करना भी मुश्किल था. इंटरनेट के प्रादुर्भाव से तो इसमें और इजाफा हुआ है. नेट पर हिंदी सिखानेवाली वेबसाइटों की बाढ़ आ गयी है. ऑनलाइन हिंदी सिखानेवालों की दुनिया भर में मांग बढ़ गयी है.
विश्व भर में हिंदीभाषी लोगों की तादाद बढ़ रही है. नेपाल, दक्षिण अफ्रीका, मॉरीशस, युगांडा, फिजी, सिंगापुर और खाड़ी देशों में बड़ी संख्या में हिंदी भाषी हैं. दुबई जैसे शहरों में तो आज हिंदी बोलचाल की भाषा बन गयी है. अमेरिका, इंगलैंड के कई शहरों में, एयरपोर्ट और रेस्तरां में आप हिंदी में बात कर सकते हैं. अजरबैजान, उज्बेकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, ताजिकिस्तान, अफगानिस्तान आदि में तो हिंदी गानों और फिल्मों की धूम है.
दरअसल, हिंदी का प्रचार अपने आप ही हो रहा है. सरकार कुछ करे या न करे, हिंदी स्वतः ही बढ़ रही है. हिंदी के इस विस्तार का मूल कारण उसका समावेशी स्वरूप है. आज सही मायनों में हिंदी भाषा की गंगा बन गयी है. कभी सिर्फ खड़ी बोली के तौर पर जानी जानेवाली संस्कृतनिष्ठ शब्दों से पूरित हिंदी आज देश की लगभग सभी भाषाओं और विदेशी भाषाओं से भी शब्दों को लेकर आत्मसात कर समृद्ध हो गयी है. भोजपुरी, मैथिली, मगही, बृज और अवधी जैसी समृद्ध भाषाओं और बोलियों के संगम ने इसे जन-जन की भाषा बना दिया है. आज हिंदी ज्यादा आधुनिक, विपुल शब्द-संपदा से भरपूर व बेहतर अभिव्यक्ति का माध्यम बन गयी है. रही सही कसर पूरी कर दी है, हिंदी फिल्मों और टीवी चैनलों के लोकप्रिय कार्यक्रमों ने, जिन्होंने हिंदी को दुनिया भर में लोगों के घरों में पहुंचा दिया.
हिंदी मीडिया का भी हिंदी के उत्थान में महत्वपूर्ण योगदान है. आज हिंदी अखबारों और पत्रिकाओं की हिंदी अनौपचारिक, सीधी, लोगों के सरोकार और भावनाओं से तारतम्य बिठानेवाली भाषा बन गयी है. स्थानीय बोलियों, लोक-साहित्य का भरपूर इस्तेमाल कर हिंदी को एक जन-भाषा, एक लोक-भाषा का स्वरूप दे दिया गया है. साथ ही इसको बड़ा समर्थन मिला है. सोशल मीडिया से जिसने हिंदी की ताकत को तकनीक से जोड़ा और परिणाम स्वरूप फेसबुक, ट्विटर और व्हाट्सएप्प जैसे माध्यमों में हिंदी के प्रयोग में विस्फोटक वृद्धि हुई. माइक्रोसॉफ्ट और गूगल जैसी कंपनियों ने हिंदी की इस ताकत को तो काफी पहले ही पहचान लिया था.
दरअसल, नब्बे के दशक में बाजार के खुलने के साथ ही हिंदी का भी व्यापक रूप से प्रचार हुआ. पूरे भारत में हिंदी ने एक संपर्क भाषा के रूप में स्वयं को मजबूती से स्थापित किया. आज चेन्नई, बेंगलुरु और त्रिवेंद्रम में न सिर्फ टैक्सी और होटलवाले हिंदी समझते और बोलते हैं, बल्कि अन्य व्यावसायिक प्रतिष्ठान भी हिंदी को अपना रहे हैं. सूचना-प्रौद्योगिकी ने भी इसमें बड़ी भूमिका निभायी है. उत्तर के लाखों नौजवान दक्षिण के विभिन्न शहरों में हैं. फलस्वरूप आज चेन्नई, बेंगलुरु, पुणे या हैदराबाद में हिंदी में काम चलाना ज्यादा आसान हुआ है.
कह सकते हैं कि हिंदी का भविष्य अब सुरक्षित है. भारत जैसे बड़े बाजार में उपभोक्ताओं से संपर्क करने के लिए हिंदी एक महत्वपूर्ण कड़ी है. इसलिए कोई कुछ करे या न करे, यह बाजार ही हिंदी की प्रासंगिकता को बनाये रखेगा
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