युगभारती के WhatsApp समूह पर अनुपम जी द्वारा ८ अगस्त २०१६ को सम्प्रेषित संदेश:
प्रणाम आचार्य जी. आज आपने इस विषय पर बोल कर जैसे मेरे मन की बात सुन ली. पिछले कुछ दिनों से मैं आप से इस पर बोलने का आग्रह भी करना चाहता था. गाँव को छोड़ शहर भागने की अंधी दौड़ में सब लगे हैं. बड़ी संख्या में हमारे युग भारती के छात्र भी हैं जो ग्रामीण अंचल से हैं पर लगभग सभी अपना भविष्य शहरों में तलाश रहे हैं. इनको रोकने की जरुरत है. आप के द्वारा प्रारंभ की गयी इस चर्चा को गंभीरता से आगे बढ़ाने की आवश्यकता है.
पिछले माह जब आपने अपनी कविता सुनाई तो उसकी यह पंक्ति - 'गरीबी गांव का अभ्यास, शहरों की समस्या है...' मुझे अंतस तक छू गयी. इसलिए और भी क्योंकि कुछ समय पूर्व ही प्रधान मंत्री मोदी ने स्मार्ट सिटी कार्यक्रम की घोषणा करते हुए कहा की शहरीकरण से ही गरीबी दूर की जा सकती है. मुझे यह उचित नहीं लगा. दो सप्ताह पूर्व मैंने अपने एक पाक्षिक कॉलम में इस पर लिखा भी जिसे मैं आप सब के साथ - चर्चा को आगे बढ़ाने के उद्देश्य से - साझा करना चाहूँगा. (मैं नियमित रूप से कुछ समाचार-पत्रों में लिखता हूँ.)
अपना लेख उद्धृत करने के पहले मैं अपने सभी साथियों से जो ग्रामीण परिवेश से हैं, एक बात कहना चाहता हूँ. वह यह की गाँव में सिर्फ कोयल ओर मोर ही नहीं हैं, हमारा भविष्य भी है. बड़ी धनोपार्जन की सम्भावना भी है. जैसे आज से १५-१० वर्ष पहले IT को Sunrise industry कहा गया था, यकीन मानिये अगले १०-१५ वर्षों में कृषि - agriculture अगली Sunrise Industry होगी. अभी वहां दिक्कतें जरूर हैं - जैसा की आचार्य जी ने कहा पर संभावनाएं अनंत हैं. आगे चर्चा में मैं इन संभावनाओं का उल्लेख विस्तार से करूंगा यदि आप जानना चाहेंगे.
मेरा लेख :
पिछले महीने पुणे में स्मार्ट सिटी परियोजना का शुभारंभ करते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि शहरीकरण को समस्या नहीं, बल्कि गरीबी दूर करने का एक अवसर माना जाना चाहिए. उन्होंने कहा कि यदि किसी में गरीबी कम करने की क्षमता है, तो वह हमारे शहर हैं, क्योंकि वहां काम के अवसर हैं. यही वजह है कि गरीब गांवों से निकल कर शहरों में जाते हैं. लेकिन, क्या यह सच है? क्या सचमुच शहरीकरण से गरीबी दूर हो सकती है?
वर्ल्ड-बैंक तथ्यों के आधार पर दावा करता है कि शहरीकरण की वजह से चीन, भारत, कई अफ्रीकी व दक्षिण-अमेरिकी देशों में जीवन-स्तर सुधरा है. इसके अनुसार, शहरीकरण का एक बड़ा फायदा यह है कि लोगों को अच्छे संसाधन जैसे साफ पानी और अन्न की उपलब्धता बढ़ जाती है. वहीं अधिक उत्पादक कार्यों की उपलब्धता से पारिवारिक आय में भी वृद्धि होती है.
संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक, विकासशील देशों की कई समस्याओं का निराकरण शहरीकरण में ही है. इसके एक अनुषंगी घटक संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष (यूएनएफपीए) मानता है कि शहरीकरण से ही संसाधनों के सम्यक उपयोग, आर्थिक उन्नति व जन-कल्याण का नया युग शुरू हो सकता है.
भारत में भी 1983 और 1999 के बीच हुए एक अध्ययन में यह पता लगा था कि शहरों से लगे ग्रामीण-क्षेत्रों में गरीबी तेजी से घटी थी और बढ़ते शहरीकरण से ग्रामीण गरीबी में 12 से 24 प्रतिशत तक की कमी आयी थी. पिछले कुछ दशकों में हमारे देश में शहरीकरण का विस्तार तेजी से हुआ है. 1971 में जहां हमारी शहरी आबादी 20 प्रतिशत थी, 2011 की जनगणना में वह 31 प्रतिशत हो गयी थी. जनसंख्या के आंकड़े इसमें और वृद्धि के संकेत कर रहे हैं. 2001 से 2011 के बीच ग्रामीण जनसंख्या वृद्धि दर 12.2 प्रतिशत रही, जबकि शहरों की जनसंख्या वृद्धि दर 31.8 प्रतिशत रही. संयुक्त राष्ट्र के एक आकलन के अनुसार, 2050 तक विकासशील देशों की शहरी आबादी दोगुनी हो जायेगी.
दरअसल, शहरी जनसंख्या बढ़ने से ग्रामीण उत्पादों की मांग बढ़ती है, जिसका सीधा फायदा शहरों से सटे ग्रामीण क्षेत्रों को होता है. इसका एक उदाहरण है दिल्ली का राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र. उत्पादों की मांग, संसाधनों की उपलब्धि और बढ़ती जनसंख्या ने दिल्ली के नजदीकी हरियाणा, उत्तर प्रदेश और राजस्थान के सैकड़ों गांवों की तसवीर बदल दी है. ऊपर से जमीन की बढ़ती कीमतों ने भी न केवल किसानों की गरीबी दूर की, बल्कि उनको अत्यंत समृद्ध भी बना दिया. यही स्थिति मुंबई, कोलकाता और बेंगलुरु जैसे अन्य महानगरों में हुई.
पर सुदूर क्षेत्रों में बसे गांवों में इसका क्या असर हुआ? वहां समृद्धि तो नहीं पहुंची, पर शहरों की ओर पलायन जरूर हो गया. बड़ी संख्या में लोग उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों से गरीबी के चंगुल से निकलने की आशा में और काम की तलाश में महानगरों की ओर निकल पड़े.
शहरों की ओर इस दौड़ से एक ओर जहां लोगों को रोजगार मिला और उनकी आय बढ़ी, वहीं बड़े शहर गरीबों और बेघरों के महासागर में तब्दील हो गये. गांव के बेघर शहर के बेघर हो गये. आर्थिक विकास के उद्देश्य से बनती सरकारी नीतियों का झुकाव बेतरतीब शहरीकरण की तरफ ऐसा हुआ, जिसने असमानता को बढ़ा दिया. शहरों की ओर पलायन करते लोग शहरों की सीमित बुनियादी सुविधाओं पर बोझ बन गये. नतीजा, गांवों की बदहाली शहरी बदहाली में तब्दील होती चली गयी.
आज देश में लगभग सात करोड़ लोग शहरी झुग्गी-बस्तियों में रहते हैं, जहां न तो साफ पानी है, न सफाई और न अन्य मूलभूत सुविधाएं. इसके अलावा बड़ी संख्या में लोग पुलों के नीचे, सड़कों पर और जहां-तहां जीवनयापन को मजबूर हैं. वर्ष 2001 में जहां अधिकतर बेघर परिवार ग्रामीण क्षेत्र में थे, 2010 आते-आते बढ़ती शहरी बेघरों की संख्या गांवों के बेघरों से ज्यादा हो गयी. इन बेघरों की सबसे बड़ी विडंबना तो यह है कि अपनी एक-दो बीघे की जमीन को गांवों में छोड़ कर ये खुले आकाश के नीचे या 10X10 की झोपड़ी में 5-6 लोगों के साथ गुजर-बसर करते हैं. शहर में अमीरों और गरीबों के बीच आवासीय स्थितियों और सामाजिक हैसियत के बीच एक निर्मम विभाजन दिखने लगा है. मकानों की भारी कमी है और जो हैं भी, उनकी कीमतें गरीब विस्थापितों की पहुंच से बाहर हैं.
एक अन्य नयी समस्या जो गरीबों के सामने आती है, वह है शहरों की तकनीक पर बढ़ती निर्भरता. शहर या स्मार्ट-सिटी में पैर पसारती उन्नत तकनीक के सामने गांव से भारी मात्रा में आये निम्न-कौशल वाले कारीगरों के लिए औपचारिक उद्योगों या आधुनिक सेवाओं में कोई जगह नहीं है. इसलिए ये बेगारी करने के लिए मजबूर हैं. सुदूर गांव के बेहतरीन हस्तशिल्प के कारीगर हमारे शहरों में रिक्शा चलाने को बाध्य हैं.
दरअसल, हमारे देश की मूलभूत समस्याएं बुनियादी हैं. ये बुनियादी समस्याएं हैं नगरीय ढांचों और सेवाओं की, साफ पानी और रोजगार की. अभी तो हम इन्हें शहरों में ही मुहैया कराने के लिए जूझ रहे हैं. अगर हम इन्हें ही गांव तक पहुंचा सकें, तो बिना शहरीकरण के शहरीकरण का लाभ गांवों के गरीबों तक पहुंचाया जा सकेगा. साथ ही शहरों के बड़े उद्योगों और रोजगार के जवाब में हम गांवों में लघु-उद्योगों को बढ़ावा देकर रोजगार का सृजन कर सकते हैं. यदि गांवों में ही रोजगार मिल जाये (मनरेगा नहीं), तो शायद शहरों की ओर की अंधी दौड़ को रोका जा सके.
ग्रामीण परिवेश से जुड़े मेरे गुरु की लिखी एक कविता की एक पंक्ति मुझे याद आती है : ‘गरीबी गांव का अभ्यास, शहरों की समस्या है...’ अर्थात गांव में रह रहा व्यक्ति अपने परिवेश, अपनी स्थिति से सामंजस्य बिठा ही लेता है और खुश रहता है. लेकिन, जब वही व्यक्ति शहर पहुंचता है, तो वह शहरी परिवेश के लिए एक समस्या बन जाता है- बढ़ती जनसंख्या की समस्या, झुग्गी-झोपड़ी की समस्या, रोजगार की समस्या, गरीबी-भुखमरी की समस्या आदि.
क्या यह शहरीकरण हमारे सीधे-सादे ग्रामीणों को ‘अनजाने’ में ही शहरी समस्या में परिवर्तित नहीं कर रहा है? विचार करें.
प्रणाम आचार्य जी. आज आपने इस विषय पर बोल कर जैसे मेरे मन की बात सुन ली. पिछले कुछ दिनों से मैं आप से इस पर बोलने का आग्रह भी करना चाहता था. गाँव को छोड़ शहर भागने की अंधी दौड़ में सब लगे हैं. बड़ी संख्या में हमारे युग भारती के छात्र भी हैं जो ग्रामीण अंचल से हैं पर लगभग सभी अपना भविष्य शहरों में तलाश रहे हैं. इनको रोकने की जरुरत है. आप के द्वारा प्रारंभ की गयी इस चर्चा को गंभीरता से आगे बढ़ाने की आवश्यकता है.
पिछले माह जब आपने अपनी कविता सुनाई तो उसकी यह पंक्ति - 'गरीबी गांव का अभ्यास, शहरों की समस्या है...' मुझे अंतस तक छू गयी. इसलिए और भी क्योंकि कुछ समय पूर्व ही प्रधान मंत्री मोदी ने स्मार्ट सिटी कार्यक्रम की घोषणा करते हुए कहा की शहरीकरण से ही गरीबी दूर की जा सकती है. मुझे यह उचित नहीं लगा. दो सप्ताह पूर्व मैंने अपने एक पाक्षिक कॉलम में इस पर लिखा भी जिसे मैं आप सब के साथ - चर्चा को आगे बढ़ाने के उद्देश्य से - साझा करना चाहूँगा. (मैं नियमित रूप से कुछ समाचार-पत्रों में लिखता हूँ.)
अपना लेख उद्धृत करने के पहले मैं अपने सभी साथियों से जो ग्रामीण परिवेश से हैं, एक बात कहना चाहता हूँ. वह यह की गाँव में सिर्फ कोयल ओर मोर ही नहीं हैं, हमारा भविष्य भी है. बड़ी धनोपार्जन की सम्भावना भी है. जैसे आज से १५-१० वर्ष पहले IT को Sunrise industry कहा गया था, यकीन मानिये अगले १०-१५ वर्षों में कृषि - agriculture अगली Sunrise Industry होगी. अभी वहां दिक्कतें जरूर हैं - जैसा की आचार्य जी ने कहा पर संभावनाएं अनंत हैं. आगे चर्चा में मैं इन संभावनाओं का उल्लेख विस्तार से करूंगा यदि आप जानना चाहेंगे.
मेरा लेख :
पिछले महीने पुणे में स्मार्ट सिटी परियोजना का शुभारंभ करते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि शहरीकरण को समस्या नहीं, बल्कि गरीबी दूर करने का एक अवसर माना जाना चाहिए. उन्होंने कहा कि यदि किसी में गरीबी कम करने की क्षमता है, तो वह हमारे शहर हैं, क्योंकि वहां काम के अवसर हैं. यही वजह है कि गरीब गांवों से निकल कर शहरों में जाते हैं. लेकिन, क्या यह सच है? क्या सचमुच शहरीकरण से गरीबी दूर हो सकती है?
वर्ल्ड-बैंक तथ्यों के आधार पर दावा करता है कि शहरीकरण की वजह से चीन, भारत, कई अफ्रीकी व दक्षिण-अमेरिकी देशों में जीवन-स्तर सुधरा है. इसके अनुसार, शहरीकरण का एक बड़ा फायदा यह है कि लोगों को अच्छे संसाधन जैसे साफ पानी और अन्न की उपलब्धता बढ़ जाती है. वहीं अधिक उत्पादक कार्यों की उपलब्धता से पारिवारिक आय में भी वृद्धि होती है.
संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक, विकासशील देशों की कई समस्याओं का निराकरण शहरीकरण में ही है. इसके एक अनुषंगी घटक संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष (यूएनएफपीए) मानता है कि शहरीकरण से ही संसाधनों के सम्यक उपयोग, आर्थिक उन्नति व जन-कल्याण का नया युग शुरू हो सकता है.
भारत में भी 1983 और 1999 के बीच हुए एक अध्ययन में यह पता लगा था कि शहरों से लगे ग्रामीण-क्षेत्रों में गरीबी तेजी से घटी थी और बढ़ते शहरीकरण से ग्रामीण गरीबी में 12 से 24 प्रतिशत तक की कमी आयी थी. पिछले कुछ दशकों में हमारे देश में शहरीकरण का विस्तार तेजी से हुआ है. 1971 में जहां हमारी शहरी आबादी 20 प्रतिशत थी, 2011 की जनगणना में वह 31 प्रतिशत हो गयी थी. जनसंख्या के आंकड़े इसमें और वृद्धि के संकेत कर रहे हैं. 2001 से 2011 के बीच ग्रामीण जनसंख्या वृद्धि दर 12.2 प्रतिशत रही, जबकि शहरों की जनसंख्या वृद्धि दर 31.8 प्रतिशत रही. संयुक्त राष्ट्र के एक आकलन के अनुसार, 2050 तक विकासशील देशों की शहरी आबादी दोगुनी हो जायेगी.
दरअसल, शहरी जनसंख्या बढ़ने से ग्रामीण उत्पादों की मांग बढ़ती है, जिसका सीधा फायदा शहरों से सटे ग्रामीण क्षेत्रों को होता है. इसका एक उदाहरण है दिल्ली का राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र. उत्पादों की मांग, संसाधनों की उपलब्धि और बढ़ती जनसंख्या ने दिल्ली के नजदीकी हरियाणा, उत्तर प्रदेश और राजस्थान के सैकड़ों गांवों की तसवीर बदल दी है. ऊपर से जमीन की बढ़ती कीमतों ने भी न केवल किसानों की गरीबी दूर की, बल्कि उनको अत्यंत समृद्ध भी बना दिया. यही स्थिति मुंबई, कोलकाता और बेंगलुरु जैसे अन्य महानगरों में हुई.
पर सुदूर क्षेत्रों में बसे गांवों में इसका क्या असर हुआ? वहां समृद्धि तो नहीं पहुंची, पर शहरों की ओर पलायन जरूर हो गया. बड़ी संख्या में लोग उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों से गरीबी के चंगुल से निकलने की आशा में और काम की तलाश में महानगरों की ओर निकल पड़े.
शहरों की ओर इस दौड़ से एक ओर जहां लोगों को रोजगार मिला और उनकी आय बढ़ी, वहीं बड़े शहर गरीबों और बेघरों के महासागर में तब्दील हो गये. गांव के बेघर शहर के बेघर हो गये. आर्थिक विकास के उद्देश्य से बनती सरकारी नीतियों का झुकाव बेतरतीब शहरीकरण की तरफ ऐसा हुआ, जिसने असमानता को बढ़ा दिया. शहरों की ओर पलायन करते लोग शहरों की सीमित बुनियादी सुविधाओं पर बोझ बन गये. नतीजा, गांवों की बदहाली शहरी बदहाली में तब्दील होती चली गयी.
आज देश में लगभग सात करोड़ लोग शहरी झुग्गी-बस्तियों में रहते हैं, जहां न तो साफ पानी है, न सफाई और न अन्य मूलभूत सुविधाएं. इसके अलावा बड़ी संख्या में लोग पुलों के नीचे, सड़कों पर और जहां-तहां जीवनयापन को मजबूर हैं. वर्ष 2001 में जहां अधिकतर बेघर परिवार ग्रामीण क्षेत्र में थे, 2010 आते-आते बढ़ती शहरी बेघरों की संख्या गांवों के बेघरों से ज्यादा हो गयी. इन बेघरों की सबसे बड़ी विडंबना तो यह है कि अपनी एक-दो बीघे की जमीन को गांवों में छोड़ कर ये खुले आकाश के नीचे या 10X10 की झोपड़ी में 5-6 लोगों के साथ गुजर-बसर करते हैं. शहर में अमीरों और गरीबों के बीच आवासीय स्थितियों और सामाजिक हैसियत के बीच एक निर्मम विभाजन दिखने लगा है. मकानों की भारी कमी है और जो हैं भी, उनकी कीमतें गरीब विस्थापितों की पहुंच से बाहर हैं.
एक अन्य नयी समस्या जो गरीबों के सामने आती है, वह है शहरों की तकनीक पर बढ़ती निर्भरता. शहर या स्मार्ट-सिटी में पैर पसारती उन्नत तकनीक के सामने गांव से भारी मात्रा में आये निम्न-कौशल वाले कारीगरों के लिए औपचारिक उद्योगों या आधुनिक सेवाओं में कोई जगह नहीं है. इसलिए ये बेगारी करने के लिए मजबूर हैं. सुदूर गांव के बेहतरीन हस्तशिल्प के कारीगर हमारे शहरों में रिक्शा चलाने को बाध्य हैं.
दरअसल, हमारे देश की मूलभूत समस्याएं बुनियादी हैं. ये बुनियादी समस्याएं हैं नगरीय ढांचों और सेवाओं की, साफ पानी और रोजगार की. अभी तो हम इन्हें शहरों में ही मुहैया कराने के लिए जूझ रहे हैं. अगर हम इन्हें ही गांव तक पहुंचा सकें, तो बिना शहरीकरण के शहरीकरण का लाभ गांवों के गरीबों तक पहुंचाया जा सकेगा. साथ ही शहरों के बड़े उद्योगों और रोजगार के जवाब में हम गांवों में लघु-उद्योगों को बढ़ावा देकर रोजगार का सृजन कर सकते हैं. यदि गांवों में ही रोजगार मिल जाये (मनरेगा नहीं), तो शायद शहरों की ओर की अंधी दौड़ को रोका जा सके.
ग्रामीण परिवेश से जुड़े मेरे गुरु की लिखी एक कविता की एक पंक्ति मुझे याद आती है : ‘गरीबी गांव का अभ्यास, शहरों की समस्या है...’ अर्थात गांव में रह रहा व्यक्ति अपने परिवेश, अपनी स्थिति से सामंजस्य बिठा ही लेता है और खुश रहता है. लेकिन, जब वही व्यक्ति शहर पहुंचता है, तो वह शहरी परिवेश के लिए एक समस्या बन जाता है- बढ़ती जनसंख्या की समस्या, झुग्गी-झोपड़ी की समस्या, रोजगार की समस्या, गरीबी-भुखमरी की समस्या आदि.
क्या यह शहरीकरण हमारे सीधे-सादे ग्रामीणों को ‘अनजाने’ में ही शहरी समस्या में परिवर्तित नहीं कर रहा है? विचार करें.
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