(अपने आचार्य श्री ओम शंकर जी के प्रति ..... इस लेख की तिथि जून २० ०८
की है, जब अपने जीवन का प्रमुख भाग पूरी सामर्थ्य के साथ विद्यालय को देकर वह वापस अपने
गाँव एक नया अध्याय लिखने जा रहे थे। उसकी बात फ़िर कभी ..... )
अनवरत परिवर्तन के प्रति संवेदनशील, उत्तरदायी मनों ने अपनी सामर्थ्य और श्रद्धा के बल पर
समय को जो भी दिया, उन प्रयत्नों ने ही परम्परा और सभ्यता को सदा आगे बढ़ाया है | इन प्रयत्नों के स्वरूप भले ही
भिन्न रहे हों, किन्तु नमन एक ही दिशा की ओर था | उसमें भी शिक्षक ने समाज में एक सधे हुए किसान का काम
किया | समाज की परती भूमि को जोतकर बीज बोये और भविष्य को सुफल दिए | परिणाम - सभ्यताओं का सतत विकास,
इतिहास की कठिन से
कठिन परिस्थितियों में भी देश-समाज को बल-दिशा मिलने की उपस्थित परम्परा | पं. दीनदयाल उपाध्याय विद्यालय,
ऐसी ही शृंखला कि एक
सशक्त कड़ी है | इस यज्ञ की समिधा बन जिन लोगों ने स्वयं को होम कर दिया - ओम शंकर जी उनमें सदा
आगे रहे, आगे रहेंगे |
जब से विद्यालय प्रारंभ हुआ, विद्यालय में कोई भी विद्यार्थी आचार्य जी की जीवन-शैली,
विचार, विद्वत्ता, व्यवहार, प्रशासकीय प्रभुता से प्रभावित
हुए बिना न रह सका | किन्तु, इसमें भी उनके अन्दर के अभिभावक की विशालता को मैं सर्वाधिक श्रेय दूँगा |
छात्रावास में रहने
वाले छात्रों - विशेष रूप से प्रारम्भिक वर्षों के छात्रों - ने इसका अत्यंत निकटता
से अनुभव किया है | हर सुबह, प्रातः-स्मरण के लिये सभी छात्रों को लेकर जाना, कोई सो रहा है तो उसके सिर पर प्यार
से हाथ फेरकर उठाना - "बच्चे , प्रातः-स्मरण के लिये नहीं चलोगे | देर हो रही है |" मुझे स्मरण है कि हम छठी कक्षा
के छात्र भी ( और, वे कितने बड़े हुआ करते थे ?) जाड़ों में शाल लपेटे अधखुली आँखों के साथ विशाल-कक्ष में जाते
थे | ऊँघते-ऊँघते प्रातः-स्मरण
भी करते थे | पर, जैसा बाल मन होता है - न शिकायत, न क्लेश - पर वैसा ही, और शायद उससे भी कहीं अधिक अभिभावक-विवेकी-भाव
ओम शंकर जी में अपने घरों से दूर बैठे उन बच्चों के प्रति सहज रूप से दिखता,
मिलता था |
सायंकाल आरती होती
थी | प्रायः आरती के बाद
सभी से बातचीत करते हुए आचार्य जी कोई न कोई विषय लेते थे | उन विषयों में कोई छोटी घटना,
रामचरितमानस की कोई
चौपाई या फ़िर दिन भर की व्यस्तता के बीच ध्यान में आई कोई बात ही मुख्यतः विषय हुआ
करते थे | विद्यालय की सदाचार वेला को सभी याद करते
हैं, किन्तु आरती के बाद
की इस लघु-चर्चा के बिना वह अधूरी है |
कुछ छात्र आचार्य जी से अधिक जुड़ जाया करते थे | यह स्वाभाविक भी है | विद्यालय के बाद का समय भी उनके
कमरे में बीतता था | बहस-मुबाहसे होते, विनोद के दौर चला करते थे | और, जब आचार्य जी दूसरे तले के अपने
छोटे से कमरे से नीचे के अस्थायी आवास में आये, तो चाय भी कभी-कभी पीने को मिलती
थी | मैं स्वयं को कुछ अधिक
कृपापात्र समझता था इसलिए, कभी उनसे विनोद की धृष्टता भी कर लेता था | और, यह एकतरफ़ा न था | एक घटना याद आती है | विद्यालय के वातावरण में तनाव भी
होते हैं, यह सातवीं-आठवीं कक्षा के छात्र को क्या पता रहता है ! एक दिन, कुछ ऐसा ही रहा होगा, और कमरे में शान्ति का दौर कुछ
अधिक लंबा हो गया | मुझसे रहा न गया | मैनें पूछा, "आप हमसे नाराज़ हैं ?" उत्तर मिला,"नहीं तो, क्यों ?" "नहीं, ऐसे ही लगा|" और फ़िर हम लोग बातें करने लगे
| कुछ दिन बाद,
प्रश्न मेरी ओर था
- "आप हमसे नाराज़ हैं?" मैंने स्वाभाविक सा जवाब दिया,"नहीं तो, क्यों ?" आचार्य जी बोले,"नहीं, ऐसे ही लगा |" और, हम दोनों खूब ठठाकर हँसे |
यह आत्मीय विनोद आचार्य
जी के शब्द-शब्द में मिला | स्नेहपगा वह था ही | प्रायः जैसी उनकी छवि छात्रों में
या विद्यालय के बाहर के समाज में है या हुआ करती थी - एक कठोर प्रशासक की, जिसके कारण ही लोग मानते रहे कि
दीनदयाल विद्यालय, दीनदयाल विद्यालय बन सका, बना रहा | किन्तु, उनके अन्दर का वात्सल्य कितनी निकटता से सदा के लिये,
विद्यालय से और उनसे,
सभी को जोड़कर रखता
है उसका अनुमान भागती ज़िन्दगी की कोरी महत्वाकांक्षाओं को नहीं हो सकता | समय के साथ-साथ मध्यमवर्गीय परिवारों
के "मध्यमी" बालक कब-कैसे गढ़-गढ़कर उच्चवर्गीय बन गए, इसके संकेत-चिन्ह अब दिख रहे हैं
और समाज की प्रतिष्ठा प्रत्येक स्थान पर इसे मान्यता भी देने लगी है | इसका परिचय हमें रोज़ाना मिलना
प्रारम्भ हो गया है |
आधुनिक शिक्षा रोज़गार की दायी मात्र न होकर रह जाये, उसे समाज को, उच्च आदर्शों को दिखाकर एक शाश्वत
दीप के रूप में न केवल जीवित रखना, बल्कि वह सदा प्रकाशमान् रहे - उसे हर मोर्चे पर, हर कर्म-बिंदु पर, हर संगोष्ठी में दृढ़ता और आत्म-विश्वासपूर्वक
स्थापित करना - दीनदयाल विद्यालय की परम्परा का एक भाग बनाना और फ़िर, उसका यथाशक्य निर्वहन करना - बहुत
संक्षेप में, आचार्य जी के जीवन का अब तक का पाथेय रहा है | पथ स्वयं गढ़ता गया |
हम सभी के जीवन में चयन का अवसर आता है | हम सभी चुनते हैं | मार्ग भी बदलते हैं, समय-समय पर | किन्तु, अपने आत्मबल को आधार बनाकर जो चुन
लिया उसका निर्वाह आजीवन करना और न केवल निर्वाह करना, बल्कि उसे समाज के सामने एक प्रतिष्ठित
मॉडल के रूप में स्थापित कर पाना, कितना सहज है या कठिन - अदृश्य नहीं है | पहले संघ के प्रचारक बने,
फ़िर माँ के आग्रह
पर विवाह किया, किन्तु अन्तः प्रेरणा का प्रवाह पुनः संघ-जीवन में ले आया | अनंतर में, जिस उद्देश्य के प्रति स्वयं को
समर्पित किया, उससे सम्बंधित लोगों के आग्रह पर - एक महान द्रष्टा की मृत्यु के आघात को भरने
के लिये व्यक्ति-निर्माण की परम्परा की दिशा में निरंतर चलते रहे - ऐसे कितने जीवन
हमने देखे हैं ! और, शिकायत - कभी नहीं, किसी से नहीं !
पं. दीनदयाल उपाध्याय की असामयिक मृत्यु के बाद विद्यालय के निर्माण के पीछे बूजी
का हेतु था - "दीनदयाल" निर्माण करना | कितने बने या बनेंगे - इसका लेखा-जोखा
तो या इतिहास देगा या फ़िर भविष्य ही | लेकिन, एक पवित्र भाव जो मन में बैठ गया, उसे मूर्तरूप कर देने का जो साहस
उस पुण्यात्मा ने दिखाया, उसे अपने जीवन का साध्य मानकर चलने का निर्णय ओम शंकर जी व अन्य
कई आचार्यों ने लिया | इनमें शेंडे जी, प्रयाग जी, आनंद जी, दीपक जी, वीरेंद्र जी, प्रकाश जी, महेश जी, राजेश जी, ज्ञानेंद्र जी कुछ मुख्य नाम हैं
| इस सभी के लिये यह
निर्णय भी था और संगठन का आदेश भी | जिसे इन सभी ने माना, ओढ़ा, बिछाया, अपनाया और फ़िर निभाया भी आजीवन
| सरस्वती शिशु मंदिर,
तिलक नगर के एक छोटे
से कमरे से यह कारवाँ चला था | यह कोई दस-से-चार तक चलने वाला "स्कूल" न था |
जो एक बार आया,
सदा के लिये अपना होकर
रह गया | इसके पीछे, शिक्षकों की पूरी पीढ़ी ने श्रम, वात्सल्य, अनुशासन, ज्ञान - अपना जो कुछ भी था - बोया | हम अधिकतम सात वर्ष तक विद्यालय
में रहते हैं | पर, आज भी पहले बैच ( सन् १९७५!) के छात्र शाम को परिसर में दिख जाते हैं |
वह "क्या"
था जिसके कारण यह संभव हो सका | वह "कुछ" अवर्ण्य है | किसी ने दीनदयाल विद्यालय जैसा
अन्य संस्थान चलाने की बात जैन साहब से की, तो उनका कहना था,
"बिल्डिंग बना लोगे,
टीचर ले आओगे,
बच्चे भी आ जायेंगे
| इसके अलावा भी
"कुछ" है इस विद्यालय में, जो ला पाना असंभव सा है | वह "कुछ" क्या है,
यह मैं नहीं जानता
|" उनका संकेत संभवतः विद्यालय-निर्माण के पीछे शिक्षकों के ज्ञान-त्याग-वात्सल्य
भाव की ओर ही रहा होगा !
जैसे-जैसे वर्ष बढ़ते गए, विद्यालय भी बढ़ता गया, नए मानक स्थापित करता गया |
आचार्य जी ने अपने
आत्म-सम्मान और विद्यालय की स्थापना के मूल-भाव के साथ कभी समझौता नहीं किया |
दबाव कितने भी,
कहीं से भी आये |
उदाहरण भी एक नहीं,
अनेक हैं |
लेकिन, लोग भी हिम्मत कहाँ हारते हैं
! एक सज्जन तो अटल जी से पत्र लिखवा लाये अपने पुत्र के प्रवेश के लिये | संभव न था, इसलिय अटल जी का "सोर्स"
न चल सका | बाद में, अटल जी को आचार्य जी ने स्वयं पत्र लिखा जिसमें उल्लेख था की जिन मूल्यों के लिये
विद्यालय बनाया गया है, उनके कारण से उस बालक का प्रवेश संभव न हो सका | अटल जी, एक बड़े आदमी, चाहते तो - नाराज़ हो जाते,
संभवतः बैरिस्टर साहब
से शिकायत भी करते - किन्तु उन्होंने उस पत्र का उत्तर स्वयं दिया और अपने मूल्यों
के प्रति आचार्य जी की निष्ठा की अत्यधिक प्रशंसा की | और, अटल जी अनंतर में विद्यालय से जुड़
गये और एकाधिक बार विद्यालय आये भी |
देश-दर्शन विद्यालय की शिक्षा का प्रमुख अंग रहा | सीधा सा हेतु था कि छात्र बाहर
निकलें और इस देश का अनुभव कर सकें | बैरिस्टर साहब ने, विद्यालय बनने से भी पूर्व कहा
था, " हमारा देश अत्यंत विशाल है | इसे जितना देखोगे, घूमोगे - उतना अधिक प्रियतर, सुन्दर लगेगा |" (इसका उल्लेख "नीराजन"
के बैरिस्टर साहब-स्मृति अंक के एक लेख में मिल सकता है )| देश-दर्शन की योजना अगस्त-सितम्बर
में बननी प्रारम्भ हो जाती | मुख्यतः आनंद जी, प्रकाश जी, प्रयाग जी मानचित्र लेकर पूरा मार्ग तैयार करते |
विभिन्न विद्यालयों
से संपर्क करके रहने की व्यवस्था की जाती | कभी तो ऐसे भी अवसर आये कि नयी
जगह पहुँचकर ढूँढा जाता कि कहाँ रहा जाये ! तब फ़ोन आदि संचार के न तो प्रचलित साधन
थे, और शायद, न उनकी आदत ही | पत्रों के माध्यम से सब तय होता
था | आचार्य जी के साथ
- मैं मध्य-प्रदेश और राजस्थान के देश-दर्शनों में था | इन देश-दर्शनों में मस्ती का माहौल
रहता था | पर, उसमें कहीं अशिष्टता न आ सके, उसके लिये आचार्यों की दृष्टि हमेशा सतर्क रहती | आचार्य जी प्रतिदिन बैठकें लेते
और पूरे दिन का कार्यक्रम तय होता | इन बैठकों में स्थानीय लोग भी आमंत्रित रहते थे कभी-कभी
| उनसे जानकारी तो मिलती
ही थी, कभी-कभी शाम के ऐसे आयोजनों में उनके उद्बोधनों की थपकी दिन भर की थकान भी मिटा
देती थी | आचार्य जी की बात, शैली न केवल प्रभावित करने वाली रहती, बल्कि आमंत्रित महोदय भी प्रसन्न
भाव से विदा लेते | और, खान-पान-व्यवस्था का उत्तरदायित्व रामभजन, श्यामलाल, रामस्वारथ,रामलाल के जिम्मे रहता |
कई बार तो ऐसा भी हुआ
कि सड़क के किनारे, किसी नदी के पास खाना बनाकर "पूरे भोजन-मंत्र" के साथ "ढाक के तीन
पात" के पत्तलों में भोजन का आनंद लिया गया | इन सभी दैनिक कार्यक्रमों के बीच
आचार्य जी की दृष्टि यह रहती कि जहाँ गये हैं, वहाँ के किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति
से मिला जाये - बिना किसी पूर्वाग्रह के, बिना किसी पूर्व-परिचय के और बिना किसी "अपॅाइन्टमेंट"
के | उदयपुर गये तो महाराणा
भागवत सिंह से मिले, ग्वालियर में माधव राव सिंधिया से मिले और दार्जिलिंग में सुभाष घीसिंग से |
दार्जिलिंग वाली यात्रा
में मैं नहीं था | बाद में पता लगा कि श्री घीसिंग
के कार्यालय में "भेंट का हेतु" पूछा गया, तो यहाँ से उत्तर था, बस मिलना है, हेतु कुछ नहीं | बड़ा कुतूहल वाला उत्तर था यह ! फ़िर भी, श्री घीसिंग से भेंट का मौका उस
छोटे से समूह को मिल ही गया | और, इस समूह की बातचीत और निश्छल आत्मीय भाव से घीसिंग भी प्रभावित
हुए बिना न रह सके | और, उन्होंने माना भी, कि "ऐसे लोगों से पहली बार मिल रहे हैं जो बिना
किसी अपेक्षा के - इस देश के दूसरे भाग से आये हैं और वह भी सिर्फ़ मिलने, हाल जानने के लिए |"
लोकाचार में यह भाव
बना रहे तो इस देश में विघटन कभी नहीं हो सकता | इसी घटना से जुड़ी बातचीत में आचार्य
जी ने मुझसे कहा कि श्री घीसिंग से बात करके उन्हें लगा कि गोर्खाल्याँड आन्दोलन कि
जड़ संभवतः इसमें थी कि गुरखे-समूह का, उसकी निष्ठा का उपयोग तो किया गया किन्तु कभी भी,
किसी ने उसके नेतृत्व
से बात करके उनसे जुड़ने का यत्न नहीं किया | यहाँ तक कि लोक-संग्रही संघटनों
ने भी !
हमने हिंदी आचार्य जी से ही "सीखी" | कक्षा में आचार्य जी की यही प्राथमिकता
रहती कि भाषा की एक ठीक समझ छात्रों में बन सके | - किन्तु यह कोई आरोपित, ओढ़ी हुई दृष्टि हो, ऐसा न था | यह एक पूरा स्वाभाविक प्रवाह था
| जिस प्रकार का वाद-विवाद-संवाद
कक्षा में चला करता था, उसे विनोद में आचार्य जी "पत्रकार-सम्मेलन" कहा करते
थे | इस तरह की अलीकी शैली
के कारण सभी छात्रों के लिए हिंदी सिर्फ़ एक "कोर्स" का विषय मात्र न थी,
बल्कि संवाद,
विचार का एक सशक्त
माध्यम बन सकी | किस प्रकार का वातावरण कक्षा में रहता था, इसका एक उदाहरण देखिये |
आचार्य जी ने एक दिन
हमारी कक्षा में प्रश्न किया कि - "क्या कारण है कि कबीर-सूर-तुलसी हर कक्षा
- प्राथमिक से लेकर उच्च विद्यालयी स्तर तक - के पाठ्यक्रम में हैं ?"
उत्तर आया -
"भारतीय साहित्य का आधार ज्ञान-भक्ति-कर्म हैं | यह तीनों ही इन धाराओं के प्रतिनिधि
कवि रहे हैं, इसलिए |" बाद में आचार्य जी ने इस प्रश्न और उत्तर की चर्चा अन्य कई कक्षाओं में भी की |
भाषा या विचार के प्रति एक निर्मल दृष्टि का विकास, उसे चिंतन की प्रक्रिया से जोड़कर
अगली पीढ़ी को सौंपने की सोच आजकल काफ़ी संकुचित होती दीख जाती है | स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात्
की पीढ़ियों में आपाधापी इस बात की अधिक है कि किस तरह से अपने बच्चों को अच्छे नंबर
दिलाकर, उच्च प्रतिष्ठित कर दिया जाये | साधनों की ओर तो ध्यान है, पर उनकी शुचिता दरकिनार कर देने
की वृत्ति सामान्य रूप से प्रचलित है | ऐसे में, अपनी संवेदनशीलता को सुरक्षित रखकर, अगली पीढ़ी में भी उसे बीजने-रोपने
का काम आचार्य जी सरीखे कुछ लोगों ने अत्यधिक विरोधी हवाओं के बाद भी निरंतर ज़ारी
रखा है | मुझे स्मरण है कि एक प्रतिष्ठित अँग्रेजी पत्र में उसके सम्पादक ने सगर्व यह उल्लेख
किया, कि - "हम सोचते अँग्रेजी में हैं |" और, मूलतः इस कारण से उनके पत्र (या
उनके सरीखे अन्य अँग्रेजी पत्रों) का इतना प्रसार हो सका | मैंने यह बात आचार्य जी से पूछी
कि इसका मतलब क्या है ! उनके अनुसार,"वह सम्पादक महोदय कम से कम ईमानदार तो थे | हमारी विचार-प्रक्रिया हमारी मातृभाषा
में ही होनी चाहिए ताकि विचार में कोई द्वैत न रहे और न ही इसको व्यक्त करने में कोई
रिक्तियाँ (gaps) भी, क्योंकि चिंतन के छिद्र नासूर बन सकते हैं और अच्छी से अच्छी सोच को उघाड़ फ़ेंक
सकते हैं | इसके लिए हमें क्या करना होगा - ख़ूब पढ़ो, ख़ूब लिखो - आपस में पत्र लिखो
और उन्हें सम्हालकर रखो भी | यदि हम धारा न भी बन पायें तो ऐसी कई छोटी-छोटी धाराओं को एक
पारदर्शी विश्वास के साथ जोड़कर चलना होगा |"
हिंदी और भारतीय चिंतन के प्रति आचार्य जी के आग्रह और समर्पण के, सभी परिचित, प्रशंसक हैं | गद्य और पद्य - दोनों पर - आचार्य
जी के अधिकार की प्रशंसा हिंदी के कई वरिष्ठ साहित्यकारों से सुनी जा सकती है |
पाञ्चजन्य के पूर्व
सम्पादक भानु प्रताप शुक्ल ने मुझसे स्वयं इसकी प्रशंसा की थी | "युग-पुरुष",
"गीत मैं लिखता नहीं
हूँ","मुक्ति-यज्ञ" में इसका परिचय किसी को भी मिल सकता है | पर, संभवतः उनका कवि-मन उनके साहित्यकार
का सबसे मधुर परिचय है, जिसमें भाव सहज बहते मिल जाते हैं और भाषा अनुचरी बनी उसका अंकन
करती जाती है | इसमें गाँव के चित्र मिल जायेंगे | इतिहास के प्रति चिंतन मिलेगा (.... इतिहास मात्र इतिवृत्त नहीं ...),
कभी-कभी आने वाली निराशाएँ
(... बाती अभी भी गीली है...), अपने प्रिय छात्रों के रेखाचित्र भी क्यों नहीं (... भा रहे
हो ...), समाज की स्थिति के प्रति विद्रोह ( .... पूरा देश मसान हो गया.... ; युग-धर्म जाग... ; .... जवानी ...) - रचनाधर्मिता, चिंतन, संवेदनशीलता की त्रिवेणी है उनका
काव्य-प्रवाह | और, इस काव्य-प्रेरणा का प्रभाव देखिये कि दीनदयाल विद्यालय का हर बैच कई एक नये कवि
साथ ले कर जाता है |
विद्यालय, विद्यालय के छात्र, - और इनके विस्तार में - विद्यालय की सीमा (परिधि और समय-सीमा,
दोनों ही) के बाहर
इनका पारस्परिक विकास तथा इसके बाद, समाज-देश के प्रति दोनों का ही रचनात्मक योगदान विद्यालय
के निर्माण में निहित चिंतन का प्रमुख आधार रहे हैं | "युग-भारती" इस विकास-क्रम
का ऐसा ही अगला सोपान है | प्रारम्भ में, बाल-भारती, किशोर-भारती की शृंखला में तरुण-भारती का प्रयोजन अस्तित्व
में आया | विद्यालय के इंटरमिडीऐट के छात्र और पूर्व-छात्र इसकी परिधि में स्वयं ही आ गये
| अनंतर में,
तरुण-भारती के एक सम्मेलन
में श्री सुदर्शन जी ने कहा कि, "इस समय सभी सदस्य तरुण हैं इसलिये, तरुण-भारती उपयुक्त लगता है किन्तु
ये सभी सदा-तरुण तो हैं नहीं | इसलिए, अगर इसका नाम युग-भारती, या ऐसा कुछ हो, तो अच्छा रहेगा |"
उनके मार्गदर्शन को सभी ने स्वीकार किया और युग-भारती अस्तित्व में
आयी | यद्यपि तरुण-भारती के संस्करण में युग-भारती चल तो रही थी किन्तु यह एक सीमित संस्था
मात्र होकर न रह जाये, इसके पीछे आचार्य जी की योजना काफी पहले से प्रारंभ हो गयी थी
| इसके आरम्भ के वर्षों
में, हम लोग जब भी आचार्य
जी से मिलते तो इस पर काफ़ी बहस हुआ करती थी | एक बार, ऐसे ही बात शुरू हुई तो मैंने पूछा,
"आप यह बताइये,
कि कोई आपकी बात क्यों
मानेगा ? इस नयी संस्था से जुड़कर क्यों रहना चाहेगा ?" (सुनने-पढ़ने में यह स्वयं में एक धृष्टतापूर्ण प्रश्न लग सकता
है, किन्तु इस प्रसंग का
उल्लेख करने का यहाँ हेतु यही है कि इस तरह के बेसिक प्रश्नों पर भी ख़ूब चर्चा होती
थी | कोई कोरी मानसिक कवायद
नहीं थी यह | अस्तु ! - ) | आचार्य जी का कहना था,"यह संस्था जिसे हम एक प्रयत्न के तौर पर प्रारम्भ करना चाहते
हैं, वृहत्तर रूप में पं.
दीनदयाल जी के एकात्म-मानव-दर्शन का प्रयोग-पटल (a platform of experiments
) बन सकती है |
इसलिए, हम में से जो संवेदनशील हैं,
एकात्म-मानव-दर्शन
को समझना चाहते हैं - उन्हें इस प्रयोग से जुड़ना चाहिए | तब इसका स्वरूप लोगों के विभिन्न उपक्रमों (initiatives)
से मिलकर बनेगा |
ग्राम-प्रयोजन,
शिक्षा, विकास, अकादमिकी अध्ययन, शोध, लेखन-प्रकाशन, सामाजिक लोकाचार - इत्यादि इसके
अंग होंगे | इसके विस्तार के लिए अन्य लोगों को भी जोड़ना होगा, चाहे वे विद्यालय से सीधे सम्बद्ध
न भी हों | किन्तु, इस बात का सदा ध्यान रखना होगा कि बाहर शहर में चल रहे क्लबों कि शुमार में यह
कभी शामिल न हो |"
इस प्रकार के प्रयोगों का विकास विचार-क्रम के प्रगत उन्मीलन (progressive
unfoldment ) से ही संभव होता है, न कि अधीर उत्साह के कारण | तो, प्रारंभ कहाँ से हो - कम से कम
पहली बार लोग एक जगह कुछ दिनों के लिए मिलें, बैठें, कुछ विचारें | इसी से चित्रकूट में "तरुण
चेतना शिविर" की योजना बनी | इसकी बौद्धिक योजना में कई संगोष्ठियों के लिए सोचा गया |
इन्हें पाँच धाराओं - धर्म, अर्थ, समाज, राजनीति एवं शिक्षा - में बाँटा
गया | संगोष्ठियों में क्रम ऐसा था कि व्यक्तिगत रूप से अपने विचार रखने के बाद,
सामूहिक चर्चा और अंत
में, किसी प्रमुख प्रतिभागी
द्वारा संगोष्ठी का संक्षिप्त निष्कर्ष-वक्तव्य | आचार्य जी को यह योजना पसंद आयी
| प्रारंभ में मुझे संकोच
अवश्य था, किन्तु उनके बल देने पर - कि "प्रयोग करने पर ही तो पता चलेगा" - कुछ
हिम्मत बँधी | इस शिविर का लाभ यह रहा कि विद्यालय से शिक्षा पूर्ण करने के बाद से छूटे संपर्क
को युग-भारती के सदस्यों ने, एक शुरुआत के लिए ही सही, फ़िर से पा लिया | यहाँ एक और बात का उल्लेख करना
उचित होगा कि आचार्य जी कि दृष्टि से कुछ छिपता नहीं था | मंच पर कहे शब्दों पर उनकी पकड़
और मज़बूत होती है | शिविर की प्रारंभिक योजना के प्रयत्नों में कुछ ख्यातनाम लोगों को शिविर में लाने
के प्रयास किये गये | सभी ने शिविर की भावना, कल्पना की प्रशंसा तो की, पर हम ऐसे किसी बड़े "नाम"
को वहाँ ला नहीं सके | संभवतः बड़े नामों सरीखे पैमाने के प्रयत्न नहीं हो पाये! चूँकि
दिल्ली में रहने के कारण ज़िम्मेदारी मेरी थी, इसलिए मेरी निराशा भी कुछ अधिक
ही थी | इस बात का उल्लेख मैंने शिविर के प्रारम्भिक सत्र के स्वागत-वक्तव्य में किया कि,
"हम किसी ख्यातनाम व्यक्तित्व
को नहीं ला सके, यद्यपि प्रयत्न किये गये | इसे मैं दुर्भाग्य तो नहीं कहूँगा, किन्तु यह वंचना अवश्य है |"
इसी सत्र में आचार्य
जी ने अपने उद्बोधन में स्पष्ट कहा,"व्यस्तता के कारण हो सकता है जिन्हें हम लाना चाहते थे,
उन्हें नहीं ला सके
| इसमें कहीं कोई वंचना
नहीं है | वंचना का भाव निराशा-दैन्य लाता है | और, हमारे मार्ग में तो - न दैन्यं न पलायनम् |" पर, मैं भी कहाँ मानने वाला था ! कार्यक्रम
के बाद ही मैंने पूछा,"वंचना में विरक्ति होती है | और, विरक्ति का निराशा से क्या लेना-देना
?" आचार्य जी का कहना था,"विरक्ति और निराशा, दोनों अलग हैं किन्तु प्रचलन में इनका भेद कठिन है | व्यावहारिक रूप में वंचना निराशा के निकट है, विरक्ति के नहीं |"
आगे प्रतिवाद संभव
न था | यह संस्था प्रारम्भ से ही स्वतंत्र, स्वाश्रित रहे - ऐसी चिंतन-दृष्टि ने ही इसे आधार दिया
|
विद्यालय जब प्रारंभ हुआ तो संस्थापकों को इसका "साध्य" परिभाषित करने
की आवश्यकता का अनुभव हुआ | भावना के स्तर पर तो खाका स्पष्ट था, किन्तु "भाषा" देने का
उत्तरदायित्व ओम शंकर जी पर आया | और, उन्होंने विद्यालय के परम साध्य की परिभाषा में लक्ष्य और उसके
लिए तैयारी (साध्य-साधन, दोनों ही! ) बड़ी सुन्दरता से उकेर दिए | स्वयं को भारत माता के चरणों में
अर्पित करने की परंपरा कोई नयी नहीं है | विभिन्न विचार प्रवाहों ने उसका अवगाहन भिन्न-भिन्न प्रकार
से किया है | किन्तु, इस नवीन - दीनदयाली - परंपरा में बड़ी स्पष्टता से इसका चिंतन दिखता है कि हमारा
समर्पण कैसे "पूर्ण" हो सकता है ! विद्यालय का यह परम-साध्य सदा ही ऊर्जस्वी
प्रेरणा देता रहेगा, इसमें संदेह नहीं |
जैसा मैंने प्रारम्भ में कहा कि शिक्षक
एक सधे किसान का काम करता है | उसके एक-एक कर्म से "निर्माण" निकल-निकल कर आता है
| सृजन की यह प्रक्रिया
स्वयं में संकुचित नहीं हुआ करती | वह भूमि को तैयार करती है, बीज बोती है, अंत में फल अपने दोनों हाथों से
समाज को सौंप देती है | और, फ़िर वापस लौटती है - पुनः पुनः वही दोहराने को | आचार्य श्री ओम शंकर जी ने भी यही
किया | नाम में "शिव" भले हो किन्तु साधना सदा ही सृजन की रही है | मेरा विनत प्रणाम - इस "सृजन-शिव"
को!
-- अनिल महाजन
२८ जून, २००८
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